Saturday, September 26, 2009

आपके दिमाग में कौन रहता है ...........


महाभारत का किस्सा है। राजा शल्य पांडवों के रिश्ते में मामा थे और दुर्योधन के धोखे के शिकार होकर मजबुरन कौरवों के पक्ष से युद्ध लड रहे थे। भीष्म पितामह शरशैया पर लेटे थे और द्रोणाचार्य विरगति को प्राप्त हो चुके थे। कर्ण को कौरव सेना का सेनापति बनाया गया। कर्ण जो स्वयं अर्जुन की बराबरी का धनुर्धर था, ने दुर्योधन को सुझाव दिया की यदि राजा शल्य उसका सारथि बनना स्विकार कर ले, तो अर्जुन के साथ उसका मुकबला बराबरी का हो जायेंगा। अर्जुन के सारथि श्री कृष्ण की ही तरह राजा शल्य भी रथ संचालन में बेजोड़ थे।

पांडवो को जब यह बात पता चली तो वे अपने मामा शल्य से मीले और उनसे निवेदन किया की वे अपने धर्म का पालन करते हुए पुर्ण कौशल से रथ संचालन करे परन्तु अपने भान्जो की एक छोटी सी मदद कर दे, मदद यह की जब वे कर्ण का रथ चलाये तो वे उसे नकारात्मक बातें बोल बोल कर हतोत्साहित करते रहे। इतिहास गवाह है – कर्ण युद्ध में मारा गया और अर्जुन अविजित रहा, क्योंकि फर्क सारथि का था। एक ने उत्साहित करने के लिए पुरी की पुरी गीता रच डाली और दुसरे ने नकारात्मक बातें बोल बोल कर कर्ण को इतना हतोत्साहित किया की वह अपनी पुर्ण क्षमता का उपयोग नहीं कर पाया और युद्ध में मारा गया।

जिन्दगी के इस युद्ध में हम सभी योद्धा भी है और स्वयं सारथि भी है । अब जरा देखे हम किस तरह के सारथि है – हम राजा शल्य की तरह नकारात्मक बातें कर अपने आप को हतोत्साहित कर रहे है या कृष्ण की तरह उत्साह बढा रहे है। हमारी क्षमताओ का पुर्ण उपयोग इस बात पर ही निर्भर करता है।

कई तरह के प्रयोगो और अनुसन्धान के बाद यह बात पता चली की हमारे दिमाग में दो कैन्द्र होते है – एक कैन्द्र जो सोचता है और दुसरा जो उसे सही सिद्ध करने की कोशिश करता है। अब यह जो सोचने वाला हिस्सा है यह कुछ भी सोच सकता है, इसके पास पुरी आजादी है। यह मांउट एवरेस्ट पर चढने से लेकर हिन्द महासागर की तलछटी नापने तक कुछ भी संभव – असंभव कार्य के बारे में सोच सकता है। उधर दिमाग का दुसरा हिस्सा कोशिश करता रहता है उस सोचे हुए को सही सिद्ध करने की।

तो आइये हम देखे की हम अपने बारे मे अधिकांश समय क्या सोच रहे होते है। हमारी फितरत होती है अपनी समस्याओ, अपनी कमियो और सम्भावित अनहोनियो के बारे सोचते रहने की। हम अक्सर ही जाने अनजाने तुलना कर अपने आप को हीन-कमतर महसूस करते रहते है, या डरते रहते है कि कही अनचाहा घटित ना हो जाये। इसमे कोई आश्चर्य की बात नही है यदि हम इन्ही सभी अनहोनियो-अनचाहे को हमारी जिन्दगी मे घटित होता हुआ पाते है।

वैज्ञानिक अनुसन्धानों मे भी यह बात सामने आयी है कि मानव मस्तिष्क एक तरह के कम्प्यूटर की तरह ही काम करता है। फर्क सिर्फ इतना सा है की जहा कम्प्यूटर न तो महसूस कर सकता है और न ही अपने प्रोग्राम खुद लिख सकता है। मानव मस्तिष्क ये दोनों ही काम बखुबी कर लेता है। उसे प्रकृति ने ना सिर्फ महसूस करने की क्षमता दी है वरन वह खुद अपने प्रोग्राम भी लिख सकता है, यह बहुत बडी जिम्मेदारी भी है जिसे हम सामान्यतः भुल जाते है।

इसका यह अर्थ भी है की हमारी जिन्दगी मे घटित होने वाले घटनाक्रमो के लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार है, न की परिस्थितियाँ या अन्य लोग, जैसा की हम अक्सर मानते है और परिणामों के उत्तरदायित्व से पल्ला झाड लेते है। यह बात सच भी है, एक अनुसन्धान में यह बात सामने आयी की जिन्दगी में सिर्फ १०% (दस प्रतिशत) घटनाए ऎसी होती है जिन पर हमारा बस नही होता है, बाकि की ९०% (नब्बे प्रतिशत) घटनाए , उन १०% (दस प्रतिशत) घटनाओ पर हमारी प्रतिक्रियाओ का ही परिणाम होती है।

हम सुबह सुबह सो कर उठते है और कुछ ऎसा हो जाता है जो कि हमारे अनुकूल नही होता है और हम व्यथित हो जाते है। उसके बाद हम पाते है की पुरे दिन हम कुछ न कुछ परेशानियो से ही जुझते रहते है। ऎसा क्यो होता है? ऎसा इसलिए होता है की जब हम व्यथित हो जाते है, विचलित हो जाते है, तब हमारे विचारो का केन्द्र बिन्दु वह परेशानी, वह समस्या बन जाती है। और जितना हम उस परेशानी, समस्या में गहरे उतरते जाते है, हम पाते है की उसी तरह की, हमे परेशान करने वाली दुसरी घटनाए एक के बाद एक होती चली जाती है।

तो इसका अर्थ क्या हुआ? क्या हमे अपनी परेशानियो – समस्याओ के बारे मे नही सोचना चाहिये? अगर हम उनके बारे मे नही सोचेंगे तो उनका हल कैसे ढुढेंगे?

आइये देखे हम अभी क्या कर रहे है और उसका नतिजा क्या निकल रहा है? जब भी कोइ समस्या या परेशानी हमारे सामने आती है, हमारा सबसे पहला प्रयास उससे कन्नी काट कर बच निकलने का होता है। हम सबसे पहले तो उसे स्विकार ही नही करना चाहते है, अगर वह फिर भी ज्यो की त्यो बनी हुई है तब हम उससे लडते है, पुछते है की समस्या – परेशानी हमे ही क्यो? क्या पहले ही कम परेशानिया है, जो एक और आ गयी। यह बहुत स्वाभाविक भी है, कोई भी व्यक्ति अपनी जिन्दगी मे समस्याए-परेशानिया नही चाहता है।

तो हम कर क्या रहे है? हम अपनी परेशानियो से लड रहे है, जुझ रहे है, उसी के बारे में सोच रहे है, और हमारे दिमाग का दुसरा हिस्सा, दुसरा केन्द्र, जो कुछ हम सोच रहे है उसे साकार कर रहा है।

तो सही तरिका क्या है? सही तरिका है, अपनी समस्याओ-परेशानियो को स्विकार करना, यह मान लेना की यह जिन्दगी का एक हिस्सा है. कबिरदास जी ने कहा है –

देह धरन का दोष है, सब काहू को होय,
ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मूरख भुगते रोय।

अर्थान भुगतना तो इस देह, इस शरीर के साथ जुडा हुआ ही है, अब इसे ज्ञान के साथ हँसी खुशी भुगतना है या रो रो कर भुगतना है, हमारी मर्जी है, पर भुगतना हर हाल मे है.

प्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचन्द्र ने भी लिखा है – ’भय रहित दुःख को सुख की तरह भोगा जा सकता है।’ अर्थात यह दुःख नही है जो हमे पिडा दे रहा है, यह उसके साथ जुडा भय है जिससे हम पिडित है.

अग्रेजी की एक प्रसिद्ध कहावत भी कुछ ऎसा ही कहती है - Pain is inevitable; suffering is optional, अर्थात पिडाओ को तो नही खत्म किया जा सकता पर उससे पिडीत होना ऎच्छिक है।

तो जब हम अपनी समस्याओ-परेशानियो से लडना खत्म कर, स्विकार कर लेते है तब हम उनके पार देख पाते है, तब हमारी उर्जा उन समस्याओ-परेशानियो के हल ढुढ्ने मे लग पाती है। जब हमारा मस्तिष्क समस्याओ-परेशानियो के बजाय हल के बारे में सोच रहा होता है, तब दुसरा केन्द्र उसे साकार करना शुरु कर देता है और हमारी जिन्दगी पर हम अपना नियन्त्रण बढा हुआ पाते है । यह अहसास हमे अधिक आत्मविश्वासी, अधिक प्रसन्न रहने मे मदद करता है।

तो अब आप समझ गये होंगे की हमारे सोचने में कितनी ताकत है और हमारी सोच ही हमारी जिन्दगी में परिणाम पैदा करती है, सही सोच से सही परिणाम और गलत सोच से गलत परिणाम।

लेखक श्री अमित भटनागर, अमोघ फाँउन्डेशन के चेयर पर्सन, मोटिवेशनल स्पिकर, कार्पोरेट ट्रैनर, लेखक व ईमोशनल ईन्टेलिजेन्स गुरु है।

2 comments:

  1. Bat to ekdam sahi hai, jaisa sochongo, vaisa hi to paoge.

    Itane achchhe lekh ke liye koti koti dhanyvad.

    ReplyDelete
  2. Amitji, bahut badi aur acchhi baat keh di apne...kai baar pratyaksh anubhav kar chuka hoon ki kamyaabi pehle dimag mein aati hai, aur phir haqiqat mein!

    ReplyDelete