Monday, June 22, 2009

सवेदनशीलता

जो संवेदनशील हैं, प्रायः उन्हें कमजोर मान लिया जाता हैं। जो अपने को सबल समझते हैं, वे प्रायः, असंवेदनशील होते हैं। कुछ लोग स्वयं के प्रति संवेदनशील होते हैं पर औरो के प्रति नहीं। और कुछ लोग दुसरो के प्रति संवेदनशील होते हैं पर खुद के प्रति नहीं। जो लोग केवल अपने प्रति संवेदनशील होते हैं, वे प्रायः औरो को दोष देते हैं। जो केवल दुसरो के प्रति संवेदनशील होते हैं, वह स्वयं को असहाय और दीन समझते हैं. उनकी सोच रहती हैं – बेचारा में।

कुछ लोग इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं की संवेदनशील होना ही नहीं चाहिए क्योंकि संवेदनशीलता से पीडा होती हैं ( और पीडा होने का अर्थ, वे कमजोर होना समझते हैं)। इसलिए वे अपने आप को औरो से दूर रखने लगते हैं परन्तु यदि तुम सवेदनशील नहीं हो तो तुम जीवन के अनेक सूक्ष्म अनुभवों को खो दोंगे, जैसे अंतर्ज्ञान, सोंदर्य और प्रेम का उल्लास। यह पथ और यह घ्यान तुमको सबल भी बनाता हैं और संवेदनशील भी। असंवेदनशील व्यक्ति प्रायः अपने ही भीतर की कमजोरियों को नहीं पहचान पाते। और जो संवेदनशील होते हैं, वे अपनी ताकत को नहीं पहचान पाते। उनकी संवेदनशीलता ही उनकी ताकत हैं। संवेदनशीलता ही आत्मबल हैं बशर्ते तुम इस बात को समझ पाओ, बशर्ते तुम अपनी संवेदनशीलता से सीख पाओ।
श्री श्री रवि शन्कर

Saturday, June 20, 2009

पापा हम आपको प्यार करते हैं. (फादर्स डे पर विशेष लेख)

इस बार फादर्स डे याने पितृ दिवस हमारे यहाँ २१ जून के दिन आया हैं. विश्व भर में यह अलग अलग दिन बनाया जाता हैं. अमेरिका व भारत सहित अधिकांश देशो में यह जून के तीसरे रविवार को बनाया जाता हैं.

ताईवान में जहा यह आठ अगस्त, जो की आठवे महीने की आठवी तारीख हैं के दिन बनाया जाता हैं. आठ का उच्चारण ‘मेंडरिन चाइनीज़’ जो की ताईवान की भाषा हैं, में 'बा' से मिलता जुलता हैं, जिसका की मतलब पापा या पिता भी होता हैं. इसीलिए ताइवानवासी ८ अगस्त को 'बाबा डे' भी कहते हैं.

थाईलैंड में ५ दिसम्बर को, नार्वे व स्वीडन में यह नवम्बर के दुसरे रविवार को, ब्राजील में अगस्त के दुसरे रविवार को और आस्ट्रिया व बेल्जियम में जून के दुसरे रविवार को फादर्स डे के रूप में बनाया जाता हैं.

ऐतिहासिक तौर पर फादर्स डे शुरू करने का श्रेय वाशिंगटन की सोनोरा डोड को जाता हैं. सोनोरा को यह ख्याल १९०९ में मदर्स डे की एक सभा में शामिल होने के दौरान आया था. सोनोरा के पिता विलियम स्मार्ट ने उसकी मॉं की म्रत्यु के पश्चात्, अकेले ही अपने छः बच्चो की परवरिश की थी. सोनोरा की मॉं की म्रत्यु उसे जन्म देने के दौरान हो गयी थी. सोनोरा ने यह महसूस किया की उसके पिता ने निस्वार्थ भावः से, खुद के सुखो का त्याग करते हुए उसका व उसके भाई बहनों का जो पालन पोषण किया वह अपने आप में बेमिसाल था.

सोनोरा अपने पिता के सम्मान में एक विशेष दिन चाहती थी और चूँकि उसके पिता विलियम स्मार्ट का जन्म जून महीने में ही हुआ था, अतः उसने १९ जून १९१० में पहला फादर्स डे स्पोकेन, वाशिंगटन में आयोजित किया.

अनोपचारिक रूप से फादर्स डे बनता रहा, बीच बीच में जहा इसे समर्थन भी मिलता रहा वही इसका मखोल भी बनाया गया. जंहा मदर्स डे विश्व भर में काफी प्रेम और उत्साह के साथ बनाया जाता रहा हैं, वही फादर्स डे को लोगो ने उतनी आसानी से स्वीकार नहीं किया. अखबारों और पत्रिकाओ में इस पर कार्टून छपे और यह मजाक का विषय भी बना रहा.

१९२४ में अमेरिका के तब के राष्टपति केल्विन कुलिज़ ने इसका समर्थन किया, १९६८ में तत्कालीन राष्टपति लिंडन जॉन्सन ने इस हेतु एक अध्यादेश पर हस्ताक्षर किये और १९७२ में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के द्वारा सम्बंधित कानून पर ओपचारिक रूप से हस्ताक्षर करने के बाद यह स्थाई रूप से जून के तीसरे रविवार के दिन बनाया जाने लगा.

फादर्स डे के बारे में एक और रोचक तथ्य यह हैं की इस दिन बिकने वाले ग्रीटिंग कार्ड और उपहारों का कुल अनुमानित मूल्य, मदर्स डे को होने वाली बिक्री का मुश्किल से ६० प्रतिशत ही होता हैं.

शायद ऐसा इसलिए होता हैं की जहाँ मॉं के साथ गहरे भावनात्मक सम्बंथ होते हैं वही पिता के साथ तुलनात्मक रूप से वैचारिक सम्बन्ध होते हैं. हमारी हिंदी फिल्मे भी जहा नायक को 'मेरे पास मॉं हैं' जैसे भावुक संवाद देती हैं वही पिता को सिद्धांतवादी व्यक्ति जिसका भावनाओ से सम्बन्ध नहीं है के रूप में प्रस्तुत करती हैं. अभी कुछ साल पहले तक सामाजिक तौर पर पिता का सबके सामने अपने बच्चो के प्रति प्यार का इज़हार अच्छा नहीं माना जाता था, पर यह बात मॉं पर लागु नहीं होती थी.

वैसे भी हमारा सामाजिक ताना बना कुछ इस तरह का हैं जहाँ मॉं तो प्यार का पर्यायवाची हैं, वही पिता अनुशासन और व्यवस्था के प्रतिक हैं. यह माना जाता रहा हैं की अनुशासन और व्यवस्था बनाये रखने के लिए यह जरुरी हैं की पिता भावुक न बने और भावनाओ को दरकिनार कर. तार्किक रूप से कार्य करे. इसके पीछे हमारी इस सामाजिक धारणा जहाँ भावुक होने का अर्थ कमजोर होना माना जाता हैं, का भी बड़ा हाथ हैं.

हम सब भी जब अपनी अपनी जिंदगियों में झाकते हैं तो कुछ अपवादों को छोड़ कर प्रायः यही पाते हैं की पिता होने का अर्थ एक दृढ, मजबूत और शांत व्यक्ति होना ही हैं, जो बड़ी से बड़ी मुश्किलों में भी अविचलित रहता हैं और परिवार के सभी सदस्यों के लिए संबल की तरह होता हैं.

पर क्या यह सचमुच सही हैं, ऊपर से मजबूत, दृढ और निडर दिखने वाले यह हमारे पिता, यह पुरुष क्या सचमुच अंदर से भी ऐसे ही हैं?

भावनात्मक बुद्धिमानी विषय पर ५,००,००० वयस्कों पर हुए शोध में यह परिणाम सामने आया की पुरुष भी उतने ही भावुक होते हैं जितने की महिलाए. मनोवेघ्यानिक जोश कोलमेन का कहना हैं की फर्क सिर्फ इतना ही हैं की जहा महिलाओ में भावनाए परोक्ष रूप से सक्रीय होती हैं, पुरुषों में यह प्रष्टभूमि में ही रहती हैं.

ऐसा क्यों होता हैं? इंटरनेशनल सेंटर फार हैल्थ कंसर्न के अध्यक्ष डेविड पावेल का कहना हैं की ऐसा मस्तिष्क की संरचना के कारण होता हैं. मस्तिष्क का बायाँ भाग जो की तर्क शक्ति से जुडा हैं और दायां भाग जो भावनाओ को संचालित करता हैं, के बीच जो सेतु हैं, वह महिलाओ में किसी हाईवे के समकक्ष और त्वरित होता हैं वही पुरुषों में यह उतना विकसित नहीं होता हैं और इसीलिए भावनाओ के लिए प्रतिक्रिया भी अपेक्षाकृत धीमी ही होती हैं.

यही कारण हैं की पुरुष चेहरे के भाव, वाणी के उतर चदाव व अनबोले संदेशो को पड़ पाने में उतने सक्षम नहीं होते हैं. परन्तु मस्तिष्क की यह संरचना पैदाइशी ऐसी नहीं होती हैं, वरन बाद में इस तरह विकसित हो जाती हैं. पुनः इसका श्रेय हमारे सामाजिक और पारावारिक ताने बाने को जाता हैं. जहाँ लड़के एक वर्ष की उम्र तक आते आते, लड़कियों की तुलना में निगाह मिलाना कम पसंद करते हैं और चलायमान वस्तुए जैसे की कार, उनका ध्यान कही अधिक आकर्षित करती हैं बजाए मनुष्यों के चेहरे के.

माता पिता भी लड़कियों के मुकाबले लड़को से भावनाओ के बारे में कम ही बात करते हैं. लड़के भी अगर गुस्से को छोड़ दे तो भावनात्मक शब्दों और भावनाओ का उपयोग कम ही करते नजर आते हैं. लड़को को यहाँ तक सिखाया जाता हैं की रोना और भावुक होने का अर्थ लड़की होना हैं. 'क्या लड़कियों की तरह रोता हैं' यह वाक्य हम सभी की जिन्दगी का सामान्य सा हिस्सा हैं.

जहाँ लड़किया और महिलाए अपनी भावनाओ को व्यक्त कर उनसे मुक्त हो जाती हैं, पुरुषों को अपनी भावनाए दबाना पड़ती हैं. यह बात उपरी तौर पर तो पुरुषों को मजबूत होने का आभास कराती हैं परन्तु अन्दुरिनी तौर पर बेचारा व कमजोर भी बनाती हैं. पुरुष अपनी भावनाओ के दबाने के चलते जहाँ प्यार और अपनत्व का इजहार नहीं कर पाते हैं वही दबी हुई भावनाए क्रोध के रूप में, जो की पुरुषों के लिए एकमात्र स्वीकार्य भावना हैं, व्यक्त होती हैं.

यह क्रोध दुसरो में भय उत्पन्न करता हैं. हम में से अधिकांश लोगो के दिमाग में पिता की छवि एक क्रोधी, निरंकुश और भावना विहीन व्यक्ति के रूप में ही हैं.

पर यह सच नहीं हैं, इस भावना विहीन छवि के पीछे एक भावुक व्यक्ति भी हैं, जिसे उतने ही प्यार, अपनत्व और सहारे की जरुरत हैं जितने की हमारी मॉं को हैं. हकीकत तो यह हैं की हमारे पिता वास्तविकता में काफी बिचारे हैं क्योंकि वह चाहते हुए भी अपनी जरूरतों को व्यक्त नहीं कर सकते हैं.

आइये आज फादर्स डे के दिन हम इस बात को समझते हुए अपने पिता के प्रति प्यार का इजहार करे, उन्हें हम खुले दिल से महसूस कराये की हम उन्हें कितना प्यार करते हैं और उनका हमारी जिन्दगी में कितना महत्व हैं. क्योंकि इस पिता नामक इन्सान के कठोर आवरण के पीछे भी एक नाजुक दिल धड़कता हैं.

(अमित भटनागर अमोघ फाउंडेशन के सीइओ व इमोशनल इंटेलिजेंस के कोच हैं
ईमेल : amitbhatnagar@amoghfoundation.org
वेबसाइट : www. amoghfoundation.org)

Wednesday, June 10, 2009

क्या आप भावनाओ से संचालित होते हैं?

नरेश एक अच्छी कम्पनी में नौकरी करता था, उसका बॉस और वह पिछले पांच सालो से साथ काम कर रहे थे और उसका बॉस उसके काम से संतुष्ट था । अचानक नरेश के बॉस को कंपनी ने प्रमोशन दे कर, दूसरी बड़ी ब्रांच में भेज दिया और नरेश की ब्रांच में उसका दूसरा बॉस आ गया ।

यहीं से नरेश के लिए मुश्किलें शुरू हों गई, नए बॉस की कार्य करने की पद्धति पुराने बॉस से अलग थी । नया बॉस उम्र में भी अपेक्षाकृत युवा था । नरेश परेशान रहने लगा और इसका असर उसके काम पर भी पड़ने लगा । नरेश का अक्सर मन होता की वह नौकरी छोड़ कर कहीं भाग जाएँ, पर वह यह सोच कर रह जाता की बिना नौकरी के वह करेगा क्या?

एक तरफ नौकरी के बदले हुए हालत और दूसरी तरफ नौकरी करने की मजबूरी उसकी परेशानी को और बढा देते थे । इसी उधेडबुन और परेशानी में कई महीनें गुजर गए, एक दिन नरेश की कंपनी ने उसके कार्य से असंतुष्ट होकर उसे नौकरी से निकाल दिया । नरेश की परेशानी और बढ़ गयी, वह दुखी रहने लगा. जरूरतों के कारण उसे अपनी योग्यता से कमतर वाली नौकरी करनी पड़ी ।

हम अपने आस पास इस तरह के या इससे मिलते जुलते घटनाक्रम को अनुभव करते रहते हैं, हम अपनी स्वयं की जिन्दगी में भी तनाव, परेशानियां और दुखों को पहले से कहीं अधिक बढा हुआ पाते है ।

अगर गहराई में जा कर देखे तो पाएंगे की इन सभी के पीछे कही न कही हमारी भावनाएं है. जरा सोचियें इस लेख के शीर्षक “क्या आप भावनाओं से संचालित होंते है ?” का अर्थ आपके लिए क्या है?

हममें से कई लोग अत्यंत भावुक होते है, भावनाओं में बहकर अपने कार्य करते है और अक्सर बाद में पछताते हुए मिलते हैं । वही दूसरे प्रकार के लोग भी है, जो भावनाओ का होना और उन्हें अभिव्यक्त करना अच्छा नहीं मानते हैं, ऐसे लोग अक्सर गुस्से और आतंरिक असन्तोष के शिकार पाए जाते है।

सही मायने में देखा जाये तो हम पाएंगे की भावनाओं में बहना या उन्हें नकारना, एक ही सिक्के के दो पहलु हैं क्योंकि दोनों ही तरह से जो परिणाम मिलते है, वह हमारी दूरगामी खुशी और सफलता के लिए हनिकारक होते है ।

आइये देखें कि हमारी जिन्दगी में भावनाओ का अस्तित्व क्यों हैं ? शायद आप को पता होगा की हमारे मस्तिष्क में दो अलग अलग केंद्र होते हैं । एक केन्द्र भावनाओं को संचालित करता हैं और दूसरा हमारे विचारों को । हमारे विचार और भावनाएं अलग अलग महसूस होते हैं, विचार जो मस्तिष्क में उपजते हैं और भावनाएं जो हम शरीर में महसूस करते हैं । हमारी भावनाएं हमारे विचारों से यही कोई सौ करोड़ साल पुरानी हैं ।

हमारी भावनाएं हमें प्रकृति का अदभुद उपहार है, यह हमें आंतरिक सन्देश देती है कि हम जिस स्थिती में है या हम जो कर रहे हैं वो हमारे विश्वास, हमारी मान्यताओं और हमारी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के अनुरूप है या नहीं ।

हम अच्छी भावनाओं को महसूस करते है जब हम अपने अनुकूल कार्य कर रहे होते है और यदि हम अपने प्रतिकूल होते है तो हम बुरी भावनाएं महसूस करते है ।

हम इसे कुछ इस तरह समझ सकते हैं कि हम एक ऐसे क्षेत्र में रहते है जहां अक्सर आग लगती रहती है और वहां भावनाएं हमारे घर में लगा फायर अलार्म की तरह है, इसे यदि हम बंद कर देंगे तो घर जल कर खाक भी हो सकता है, वहीं दूसरी तरफ इसके अत्यधिक संवेदनशील होने पर हमें बार बार गलत अलार्म मिलेंगे, यह हर छोटी मोटी बातों पर बजता रहेगा और हम सुचारू रूप से कोई काम नहीं कर पाएंगे ।

जरुरत इस बात की है कि हम इस फायर अलार्म की कार्य प्रणाली को समझ कर इसका संयोजन इस प्रकार करे की यह हमें न सिर्फ विपत्तियों से बचाये बल्कि हमें सुचारू रूप से कार्य करने में मदद करें ।

बुरी भावनाओं से निपटने का सबसे आसान उपाय हैं उन्हें समझना, न की उन्हें नकारना या उनके साथ बह जाना । सबसे पहले हम अपने आप से यह पूछें की हम जो भावना महसूस कर रहे है, वह क्या है, कैसी महसूस हो रही हैं और वह हमें क्या बताना चाहती है ? उसके बाद हम उपलब्ध विकल्पों को देखे और उनमें से ऐसे विकल्पों को चुने जिससे हमारी दूरगामी खुशियां भी सुनिश्चित होती हों । हम यह भी देखें कि हम अच्छा महसूस करने के लिए क्या कर सकते है । बेहतर होगा कि हम उन उपायों पर अपना ध्यान केन्द्रित करे जो हमारे बस में हो । ऐसा करने पर हमें धीरे-धीरे न सिर्फ अपनी बुरी भावनाओ से निपटने का अभ्यास होगा, बल्कि हम सही दिशा में अपने प्रयासों का उपयोग कर पाएंगे और अधिक सफल भी बन पाएंगे ।

नरेश के उदाहरण को यदि हम देखें तो पाएंगे कि परेशानी, दुख और नौकरी न रहने पर होने वाली तकलीफ के भय ने नरेश को इस तरह जकड़ लिया कि उसकी कार्य करने की क्षमता और कम हो गई । नरेश की तरह हम सभी भी यही गलती करते है और बुरी भावनओं के अस्तित्व को ही स्वीकार करना नहीं चाहते है । यह सर्वविदित तथ्य है कि जिस भी बात का हम प्रतिरोध करते है, वही बात हम पर हावी हो जाती है । यदि कोई आपसे कहे कि आपको लाल मुंह के बंदर के बारे में नहीं सोचना है तो सबसे पहले आपके दिमाग में लाल मुंह के बंदर का ही ख्याल आएगा । हमारा मस्तिष्क इसी तरह काम करता है, उसे यदि आप निर्देश देंगे कि यह काम नहीं करना है तो उसे पहले उस काम के बारे में सोचना पडे़गा जो की नहीं करना है । बस यही कारण है कि जब हम बुरी भावनाओं को नकारते है तो वह हम पर और ज्यादा हावी हो जाती है ।

यदि नरेश ने बजाय भावनाओं से पीछा छुडा़ने के, भावनाओं के पीछे छुपे संदेश को समझा होता तो बजाय परेशान होने के वह अपनी कार्यपद्धति को बदलकर ना सिर्फ अपनी नौकरी बचा पाता बल्कि बदलाव का सकारात्मक उपयोग कर अपने को और अधिक प्रभावशाली भी बना पाता ।

तो आइये हम संकल्प करे की हम बजाय भावनाओं में बहने या उन्हे नकारने के, उन्हे समझने की कोशिश करे और अपनी भावनाओं एवं विचारों के बेहतर तालमेल से अपने लिए एक सुखी और सफल जिन्दगी की रचना भी करे ।

(अमित भटनागर अमोघ फाउंडेशन के सीइओ व इमोशनल इंटेलिजेंस के कोच हैं
ईमेल : amitbhatnagar@amoghfoundation.org
वेबसाइट : www.amoghfoundation.org)