Friday, October 9, 2009

Emotions spice up women's sex lives

Women with high emotional intelligence (EI) have better sex lives, according to a new study.

Emotional intelligence is the ability to monitor and manage emotions in oneself and others.

The study by a research team at King's College London showed that those with greater EI had more orgasms. It also suggests that low EI is a risk factor for female orgasmic disorder.

"These findings show that emotional intelligence is an advantage in many aspects of your life including the bedroom. This study will help enormously in the development of behavioural and cognitive therapies to improve women's sexual lives," the Independent quoted Professor Tim Spector, director of the Twin Research Department at King's College London and co-author of the study, as saying.

For the study, a total of 2,035 female volunteers from the TwinsUK registry were recruited, ranging in age from 18 to 83.

The registry consists of adult twins who agreed to take part in studies to investigate the causes of common disorders. Using twins makes it possible to disentangle genetic and environmental risk factors.

All participants completed questionnaires giving details of their sexual behaviour and performance and also answered questions designed to test their emotional intelligence.

Researchers found a significant association between EI and frequency of orgasm both during masturbation and sexual intercourse.

Women in the bottom 25 percent of the emotional intelligence range had twice the normal risk of infrequent orgasm.

Lead author, psychologist Andrea Burri, also from King's College, said: "Emotional intelligence seems to have a direct impact on women's sexual functioning by influencing her ability to communicate her sexual expectations and desires to her partner.

She also said that there was a possible association with a woman's ability to fantasise during sex.

"Emotional intelligence seems to have a direct impact on women's sexual functioning by influencing her ability to communicate her sexual expectations and desires to her partner," said Burri.

The results of the study appear in The Journal of Sexual Medicine.

Following this study that women with high emotional intelligence have better sex lives, psychologist Jo Maddocks and sexpert Susan Quilliam have come forward to give ladies with flagging libidos a boost.

"Everyone is born with a capacity for high levels of emotional intelligence, but this can change as we go through our general life, depending on what happens to us," the Sun quoted Jo as saying.

"We may lose touch with our emotions because they become too hard to address, stemming from our past experiences.

"We can then start to use coping methods preventing us thinking about them - such as getting angry, or staying quiet and bottling everything up - methods that can become addictive.

"These mechanisms are then often used to deal with anything in our lives - including sex.

"Building bad attitudes can also directly impact our relationships with other people too.

"A negative attitude, poor body language and extreme reactions can shape the way people treat us too (even sexual partners) - making us feel even more isolated and troubled.

"It is acknowledging the emotions and stopping them from ruling our behaviour that gives us emotional intelligence.

"The key is to make small changes to our behaviour, rather than attempt to overhaul our whole personality.

"If you feel ignored or left out at work, for example, try saying hello to colleagues everyday as they walk in to gain a sense of belonging.

"If you find yourself getting extremely emotional, try acknowledging your feelings before they escalate into this.

"Making small behavioural changes can really help you regain control throughout your life," Jo added.

Quilliam said that having control of the emotions not only means being calmer and happier, it also means feelings won’t get in the way of sex lives.

"There’s a whole variety of ways that emotions can affect your sexuality," Quilliam said.

"Anxious people often can’t let go enough to orgasm.

"While those with anger problems, while sometimes ravenous for sex, can become so adamant on controlling their anger they stop feeling sexy.

"If we have control, we tend to feel confident and proud of ourselves, meaning our sex lives benefit.

"And, as Jo explained, higher emotional intelligence means better relationships with others, which also applies in the bedroom too.

"If we are more willing to trust in bed, then again sex is going to be better. It’s a virtuous circle," Quilliam added.

(An Article from The Times Of India and available online at http://timesofindia.indiatimes.com/life-style/relationships/man-woman/Emotions-spice-up-womens-sex-lives/articleshow/4513121.cms)

Saturday, September 26, 2009

आपके दिमाग में कौन रहता है ...........


महाभारत का किस्सा है। राजा शल्य पांडवों के रिश्ते में मामा थे और दुर्योधन के धोखे के शिकार होकर मजबुरन कौरवों के पक्ष से युद्ध लड रहे थे। भीष्म पितामह शरशैया पर लेटे थे और द्रोणाचार्य विरगति को प्राप्त हो चुके थे। कर्ण को कौरव सेना का सेनापति बनाया गया। कर्ण जो स्वयं अर्जुन की बराबरी का धनुर्धर था, ने दुर्योधन को सुझाव दिया की यदि राजा शल्य उसका सारथि बनना स्विकार कर ले, तो अर्जुन के साथ उसका मुकबला बराबरी का हो जायेंगा। अर्जुन के सारथि श्री कृष्ण की ही तरह राजा शल्य भी रथ संचालन में बेजोड़ थे।

पांडवो को जब यह बात पता चली तो वे अपने मामा शल्य से मीले और उनसे निवेदन किया की वे अपने धर्म का पालन करते हुए पुर्ण कौशल से रथ संचालन करे परन्तु अपने भान्जो की एक छोटी सी मदद कर दे, मदद यह की जब वे कर्ण का रथ चलाये तो वे उसे नकारात्मक बातें बोल बोल कर हतोत्साहित करते रहे। इतिहास गवाह है – कर्ण युद्ध में मारा गया और अर्जुन अविजित रहा, क्योंकि फर्क सारथि का था। एक ने उत्साहित करने के लिए पुरी की पुरी गीता रच डाली और दुसरे ने नकारात्मक बातें बोल बोल कर कर्ण को इतना हतोत्साहित किया की वह अपनी पुर्ण क्षमता का उपयोग नहीं कर पाया और युद्ध में मारा गया।

जिन्दगी के इस युद्ध में हम सभी योद्धा भी है और स्वयं सारथि भी है । अब जरा देखे हम किस तरह के सारथि है – हम राजा शल्य की तरह नकारात्मक बातें कर अपने आप को हतोत्साहित कर रहे है या कृष्ण की तरह उत्साह बढा रहे है। हमारी क्षमताओ का पुर्ण उपयोग इस बात पर ही निर्भर करता है।

कई तरह के प्रयोगो और अनुसन्धान के बाद यह बात पता चली की हमारे दिमाग में दो कैन्द्र होते है – एक कैन्द्र जो सोचता है और दुसरा जो उसे सही सिद्ध करने की कोशिश करता है। अब यह जो सोचने वाला हिस्सा है यह कुछ भी सोच सकता है, इसके पास पुरी आजादी है। यह मांउट एवरेस्ट पर चढने से लेकर हिन्द महासागर की तलछटी नापने तक कुछ भी संभव – असंभव कार्य के बारे में सोच सकता है। उधर दिमाग का दुसरा हिस्सा कोशिश करता रहता है उस सोचे हुए को सही सिद्ध करने की।

तो आइये हम देखे की हम अपने बारे मे अधिकांश समय क्या सोच रहे होते है। हमारी फितरत होती है अपनी समस्याओ, अपनी कमियो और सम्भावित अनहोनियो के बारे सोचते रहने की। हम अक्सर ही जाने अनजाने तुलना कर अपने आप को हीन-कमतर महसूस करते रहते है, या डरते रहते है कि कही अनचाहा घटित ना हो जाये। इसमे कोई आश्चर्य की बात नही है यदि हम इन्ही सभी अनहोनियो-अनचाहे को हमारी जिन्दगी मे घटित होता हुआ पाते है।

वैज्ञानिक अनुसन्धानों मे भी यह बात सामने आयी है कि मानव मस्तिष्क एक तरह के कम्प्यूटर की तरह ही काम करता है। फर्क सिर्फ इतना सा है की जहा कम्प्यूटर न तो महसूस कर सकता है और न ही अपने प्रोग्राम खुद लिख सकता है। मानव मस्तिष्क ये दोनों ही काम बखुबी कर लेता है। उसे प्रकृति ने ना सिर्फ महसूस करने की क्षमता दी है वरन वह खुद अपने प्रोग्राम भी लिख सकता है, यह बहुत बडी जिम्मेदारी भी है जिसे हम सामान्यतः भुल जाते है।

इसका यह अर्थ भी है की हमारी जिन्दगी मे घटित होने वाले घटनाक्रमो के लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार है, न की परिस्थितियाँ या अन्य लोग, जैसा की हम अक्सर मानते है और परिणामों के उत्तरदायित्व से पल्ला झाड लेते है। यह बात सच भी है, एक अनुसन्धान में यह बात सामने आयी की जिन्दगी में सिर्फ १०% (दस प्रतिशत) घटनाए ऎसी होती है जिन पर हमारा बस नही होता है, बाकि की ९०% (नब्बे प्रतिशत) घटनाए , उन १०% (दस प्रतिशत) घटनाओ पर हमारी प्रतिक्रियाओ का ही परिणाम होती है।

हम सुबह सुबह सो कर उठते है और कुछ ऎसा हो जाता है जो कि हमारे अनुकूल नही होता है और हम व्यथित हो जाते है। उसके बाद हम पाते है की पुरे दिन हम कुछ न कुछ परेशानियो से ही जुझते रहते है। ऎसा क्यो होता है? ऎसा इसलिए होता है की जब हम व्यथित हो जाते है, विचलित हो जाते है, तब हमारे विचारो का केन्द्र बिन्दु वह परेशानी, वह समस्या बन जाती है। और जितना हम उस परेशानी, समस्या में गहरे उतरते जाते है, हम पाते है की उसी तरह की, हमे परेशान करने वाली दुसरी घटनाए एक के बाद एक होती चली जाती है।

तो इसका अर्थ क्या हुआ? क्या हमे अपनी परेशानियो – समस्याओ के बारे मे नही सोचना चाहिये? अगर हम उनके बारे मे नही सोचेंगे तो उनका हल कैसे ढुढेंगे?

आइये देखे हम अभी क्या कर रहे है और उसका नतिजा क्या निकल रहा है? जब भी कोइ समस्या या परेशानी हमारे सामने आती है, हमारा सबसे पहला प्रयास उससे कन्नी काट कर बच निकलने का होता है। हम सबसे पहले तो उसे स्विकार ही नही करना चाहते है, अगर वह फिर भी ज्यो की त्यो बनी हुई है तब हम उससे लडते है, पुछते है की समस्या – परेशानी हमे ही क्यो? क्या पहले ही कम परेशानिया है, जो एक और आ गयी। यह बहुत स्वाभाविक भी है, कोई भी व्यक्ति अपनी जिन्दगी मे समस्याए-परेशानिया नही चाहता है।

तो हम कर क्या रहे है? हम अपनी परेशानियो से लड रहे है, जुझ रहे है, उसी के बारे में सोच रहे है, और हमारे दिमाग का दुसरा हिस्सा, दुसरा केन्द्र, जो कुछ हम सोच रहे है उसे साकार कर रहा है।

तो सही तरिका क्या है? सही तरिका है, अपनी समस्याओ-परेशानियो को स्विकार करना, यह मान लेना की यह जिन्दगी का एक हिस्सा है. कबिरदास जी ने कहा है –

देह धरन का दोष है, सब काहू को होय,
ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मूरख भुगते रोय।

अर्थान भुगतना तो इस देह, इस शरीर के साथ जुडा हुआ ही है, अब इसे ज्ञान के साथ हँसी खुशी भुगतना है या रो रो कर भुगतना है, हमारी मर्जी है, पर भुगतना हर हाल मे है.

प्रसिद्ध उपन्यासकार शरतचन्द्र ने भी लिखा है – ’भय रहित दुःख को सुख की तरह भोगा जा सकता है।’ अर्थात यह दुःख नही है जो हमे पिडा दे रहा है, यह उसके साथ जुडा भय है जिससे हम पिडित है.

अग्रेजी की एक प्रसिद्ध कहावत भी कुछ ऎसा ही कहती है - Pain is inevitable; suffering is optional, अर्थात पिडाओ को तो नही खत्म किया जा सकता पर उससे पिडीत होना ऎच्छिक है।

तो जब हम अपनी समस्याओ-परेशानियो से लडना खत्म कर, स्विकार कर लेते है तब हम उनके पार देख पाते है, तब हमारी उर्जा उन समस्याओ-परेशानियो के हल ढुढ्ने मे लग पाती है। जब हमारा मस्तिष्क समस्याओ-परेशानियो के बजाय हल के बारे में सोच रहा होता है, तब दुसरा केन्द्र उसे साकार करना शुरु कर देता है और हमारी जिन्दगी पर हम अपना नियन्त्रण बढा हुआ पाते है । यह अहसास हमे अधिक आत्मविश्वासी, अधिक प्रसन्न रहने मे मदद करता है।

तो अब आप समझ गये होंगे की हमारे सोचने में कितनी ताकत है और हमारी सोच ही हमारी जिन्दगी में परिणाम पैदा करती है, सही सोच से सही परिणाम और गलत सोच से गलत परिणाम।

लेखक श्री अमित भटनागर, अमोघ फाँउन्डेशन के चेयर पर्सन, मोटिवेशनल स्पिकर, कार्पोरेट ट्रैनर, लेखक व ईमोशनल ईन्टेलिजेन्स गुरु है।

Monday, September 21, 2009

“वक्त नहीं”


हर खुशी है लोगों के दामन में
पर एक हँसी के लिए वक्त नहीं
दिन रात दौडती दुनिया में
जिन्दगी के लिए ही वक्त नहीं

माँ की लोरी का अहसास तो हैं
पर माँ को माँ कहने का वक्त नहीं
सारे रिश्तो को तो हम मार चुके
अब उन्हे दफनाने का भी वक्त नही.

सारे नाम मोबाईल में है
पर दोस्ती के लिए वक्त नही
गैरों की क्या बात करे
जब अपनो के लिए ही वक्त नही

आँखो में है नींद बडी
पर सोने का वक्त नहीं
दिल है गमो से भरा
पर रोने का भी वक्त नहीं

पैसों की दौड में ऎसे दौडे
कि थकने का भी वक्त नही
पराये अहसासो की क्या कद्र करे
जब अपने सपनो के लिए ही वक्त नहीं

तू ही बता ऎ जिन्दगी
इस जिन्दगी का क्या होगा
कि हर पल मरने वालो को
जीने के लिए भी वक्त नहीं

कवि : अज्ञात

Friday, September 18, 2009

The Other Half

Amogh Foundation is planning to start an online magazine dedicated to self growth issues! Visit http://theotherhalf.amoghfoundation.org/

Sunday, August 23, 2009

अन्त यात्रा


विचारों की लय पर
थिरकती है जिंदगी,
अपने ही हाथों से सँवरती है जिंदगी,
पेड़ टिकता है
जड़ो पर,
पत्तियाँ तो आनी जानी है,
गायक खो जाते है
स्वर गुंजते रहते है,
लेखक गुम हो जाते है
शब्द पिछे रह जाते है,
हीर-रांझे, रोमियों-जुलिएट
आते है चले जाते है
बस नाम भर रह जाते है,
इसी तरह दौर आते है
और जाते है
बहाव चलता रहता है,
अन्त यात्रा की कोशिश
तो हर चोले दर चोले
चलती है,
पर विचारों की लय पर
थिरकती है जिंदगी
अपने ही हाथों
सँवरती है जिंदगी.

(अमित भटनागर अमोघ फाउंडेशन के सीइओ व इमोशनल इंटेलिजेंस के गुरु हैं
ईमेल : amitbhatnagar@amoghfoundation.org
वेबसाइट : www.amoghfoundation.org

Saturday, August 22, 2009

Lack of Will Power !


We all want to accomplish things we desire; we want to convert our dreams in reality. Someone wants to reduce his/her weight but not able to start exercising or not able to control food intake. Someone other wants to write an article, but could not manage to sit for that.

We find that the reason behind our failures is because of lack of our WILL POWER. Incidentally we find ourselves frequently talking about WILL POWER which either we are lacking or someone else is having. We never find ourselves talking about the WILL POWER as our personal trait, why?

Ok, let’s first discuss what will power is?

Refer any dictionary and you find the meaning of WILL POWER as the power to make conscious choices, decisions & intentions which can be persistent too.

So why it happens that we do not find WILL POWER when we are talking about ourselves and it always find in others only?

The reason is very simple; in reality there is no as such thing like WILL POWER. When we want to do something and not able to do that, we make an excuse of not having WILL POWER.

Let me share a small story with you. One gentleman went to a renowned saint and asked for help. His problem was very common, it’s everyone’s problem in some way.

The conversation was like this:

The man: “Sir, I do not love my wife anymore and our married life is boring now. Please advise me what I should do?”

The Saint: “it’s simple, start loving your wife.”

The man: “Sir, that is the basic problem, I do not love my wife anymore”

The Saint: “That’s why I am telling you to start loving your wife.”

That is the common mistake which the man did and we all are also doing in our lives. Love is not a noun, which we have to do; it’s a verb, which we have to act. Saint explained to that gentleman that the problem itself was the solution.

So in our life too either we are taking action about something or complaining about something. When we are taking action our focus is on our actions and we never think about any kind of WILL POWER existence.

It is always when we are complaining we recognize the WILL POWER and as a excuse find our self lacking it and always find it in others only.

Ok now look again at dictionary meaning of WILL POWER – it’s the power to make conscious choices, decisions & intentions which can be persistent too.

So now onwards it is better to stop making excuses i.e. stop talking about WILL POWER and start concentrating on our conscious choices about our actions which can fetch us desired results. Amen !!!

Amit Bhatnagar
Chief Mentor of Amogh Foundation & Renowned Coach of Emotional Intelligence.
email: amitbhatnagar@amoghfoundation.org
Website: www.amoghfoundation.org

Friday, August 21, 2009

Mirror Exercise


Sit or stand in front of mirror. Comfortably look into your eyes in the mirror.

How are you feeling? Are you happy? Are you admiring yourself? Are you smiling at you?

Or are you criticizing yourself? Are you thinking about your flaws? Are you sad looking at you?

The point is if you can smile at you, if you can admire yourself, if you are happy looking at you, all these are sign of self acceptation.

The self acceptation is a healthy sign and it’s the key of all the happiness & success in one’s life. The opposite of self acceptance is self denial or self rejection, which holds you back from becoming happy & successful you!

Now let’s see, how it works. We have a powerful tool, our mind, although work on programming like a computer but supersede any kind of advance computer available in the world in any way, every way.

Our mind which is working on programming and at the same time, it has capability of writing programs by its own.

So our mind has a dual role, he is a creator as well as executer of all the programs, which decide the quality of our life.

One of my friends was overweight, his problem was very normal; we all are having the same problem in some way. He thought about diet control and exercise, so that he can reduce his weight. He was well aware that reducing weight was critical issue for his health. But irrespective of knowing it, every morning he failed to wake up on time to do exercise, he cannot control his diet too because of his fondness for delicious foods.

We generally name it as lack of commitment, lack of will power. He also did complain about the same. Then I asked him if he ever thought about who knew he is overweight & it is not good for his health or who was thinking about exercise & diet control and who were failed to did the same. His answer was he himself in both the cases.

Once we aware & realize that our mind himself is a creator and executor of all the things done by us, we are able to harness this capability to use it in our favor, which is otherwise in general working against us due to our preprogramming.

Amit Bhatnagar
Chief Mentor of Amogh Foundation & Renowned Coach of Emotional Intelligence
email: amitbhatnagar@amoghfoundation.org
Website: www.amoghfoundation.org

Monday, August 10, 2009

जीने की कला का नाम हैं समता योग

हम जिस दुनिया में रहते हैं उसे दु:खालय कहा जाता हैं। इस दुनिया में विवाद हैं, तनाव हैं, बीमारिया हैं, दुघर्टनाएं हैं, मृत्यु हैं। दु:ख प्राप्त होने के लिए दो हजार कारण गिनाए जा सकते हैं। इन दु:खो से कोई बचा नहीं हैं। जो सत्ता में हैं - उन्हे हमेशा खतरे बने रहते हैं। वे अपने सत्ता सुख को बनाए रखने के लिए सदा सावधान रहते हैं। उन्हे डर बना रहता हैं कि पता नही कब यह सत्ता सुख जाता रहे। जो समृद्ध हैं, उन्हे डर रहता हैं कि वे कहीं गरीबी रेखा के नीचे न आ जाए। मृत्यु व बीमारी का डर तो सदा ही हमारे सिर पर मॅंडराते रहते हैं। हम चाहते हैं कि हम जिन सुख समृद्धि के साधनो के स्वामी हैं, वह स्थिति सदा बनी रहे लेकिन ऐसा कभी होता नही हैं।

हम जब सुख समृद्धि के मार्ग पर आगे बढते हैं तो आनन्द सागर में डूब जाते हैं पर जब दु:खों के पहाड टूटते हैं तो लगता हैं कि अब कुछ भी शेष नही रहना हैं। यह स्थिति तनाव पैदा करती हैं। इससे मनोबल टूटता हैं, हम डिप्रेशन में आ जाते हैं। हमारे लिए कोई ऐसा सहारा नही दिखता जिसके सहारे से हम स्थिति से उबर सके। ऐसी स्थिति में व्यक्ति निराषा और तनाव की तरफ बढता हैं जिसका अन्त आत्म हत्या तक के रूप में सामने आता हैं ।

आज क्या आधुनिक छात्र, प्रशासक, समृद्ध धनी, कृषक, मजदूर, गृहणी सब भयभीत हैं और प्रतिदिन आत्म हत्या के प्रकरणो में भारी वृद्धि हो रही हैं। इन आत्म हत्याओं से सब परेशान हैं और इसके कारणो और समाधान के लिए व्यापक चिन्तन मनन हो रहा है। इन दु:खों के अन्तरतम की गहराई पर जाने पर हमें यह पता चलता हैं कि इसके लिए जिम्मेदार हमारा मन हैं। हमारा मन इतना चंचल हैं कि वह एक क्षण भी शान्त नही रहता। वह भटकता रहता हैं। उसका यह स्वभाव है कि वह जिस विषय पर अटक जाता हैं उसी पर बार बार केन्द्रित होता हैं। दु:खों के कारणों के आसपास जब यह मन अटक जाता है तो भविष्य भयावह दिखाई देने लगता हैं। इससे छुटकारे का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता। इस अंधकारपूर्ण वातावरण में हम कितना ही प्रयत्न करे ,मन को प्रकाश की कोई किरण दिखाई नहीं देती। ऐसी स्थिति में मृत्यु ही समस्त समस्याओं का समाधान करता है और ऐसी स्थिति में आत्म हत्या हीं एकमात्र मार्ग व्यक्ति के सामने दिखाई देता है ।

प्रकाश की किरण कहॉं हैं - इस स्थिति से बाहर आने के लिए ध्यान और प्राणायाम किए जाने का मार्ग प्रस्तुत किया गया है। डिप्रेशन से छुटकारा पाने के लिए कुछ औषधिया भी उपलब्ध हैं। मनौवैज्ञानिक सलाह, परार्मष भी दिए जाते है पर दु:खों के पहाड के नीचे दबे आदमी को इन सहारो पर भी विवास नही रहता। अपनों को भी वह अपनी मनोव्यथा व्यक्त नहीं कर पाता। वह गुमसुम हो जाता हैं, उसकी निद्रा उचट जाती है, भूख मर जाती हैं और चिन्ता उसके शरीर को खाती चली जाती है। वह असहाय सा हो जाता हैं।

इतने विशाल देश में कहॉ उपलब्ध हैं इतने मनौवैज्ञानिक, की वे सहज भाव से निराश, हताश व्यक्ति को उपलब्ध हो जाए । कहॉं है अपनों में इतनी समझ कि वे व्यक्ति के बिना बोले उसकी आन्तरिक व्यथा को समझ सहानुभूति का हाथ बढा पाए और हताशा के इन क्षणों में सहयोगी हो सके। इसके ठीक विपरीत किसके पास समय हैं कि वह इस गला काट प्रतियोगिता के युग में आपके दु:ख दर्द को सुने समझे। इसलिए प्रकाश की किरणों की खोज इस अंधकार पूर्ण वातावरण में नाकाफी है।

कहॉ से आते है दु:ख - सारे दु:ख आते हैं हमारे अन्दर से। कोई बाहर से आकर हमें दु:खी नहीं कर सकता। हम दु:खी होते है इसलिए कि हमारे अनुकूल परिस्थितियॉ हमेशा बनी नहीं रहती। परिवर्तन प्रति का नियम है। हम जिस संसार को स्थाई मान रहे हैं, उसमें हर क्षण बदलाव हो रहा है। हमारा शरीर जिसे हम ठोस मान कर चल रहे है, वह भी प्रतिक्षण बदल रहा है। इसी का परिणाम हैं, बालक से युवावस्था और वृद्धावस्था का सफर। हम प्रकृति और संसार के इस परिवर्तन को रोक नहीं सकते। इसलिए जो कुछ घटता है उसे हम सदा अनुकूल नहीं पाते, पर हम चाहते हैं कि वह हमेशा हमारे मन माफिक होता रहे। ऐसा न कभी हुआ है, न आगे होगा। हम चाहे आत्म हत्या करे या पागल हो जाए, यह हमारी मर्जी पर परिवर्तन का नियम अटल है, हमें उसे स्वीकार करना होगा। जैसे ही हम परिवर्तित स्थिति को स्वीकार करते हैं, हमें समस्यां के निराकरण के लिए समय मिलता हैं। हम चिन्ता से छूटकारा पाकर चिन्तन के मार्ग पर चल पडते हैं।

समय सदा एक सा नही होता - हमे यह स्मरण रखना चाहिए कि परिवर्तन का जो चक्र चला है, वह स्थाई नही है, वह सदा चलता रहेगा। इसलिए जो परिस्थिति उत्पन्न हो गई है, वह भी सदा नहीं रहेगी। वह बदलेगी और उसे बदला जा सकता है। सुख और दु:खों के बीच रिश्तेदारी है। जहॉ जहॉ भी सुख समृद्धि है। वहॉं दु:खों के बादल छिपे हुए हैं। जहॉ जहॉ शुभ के कदम हैं, वहॉ आसपास ही अशुभ भी हैं। जहॉं जहॉ लाभ दिखाई देता हैं, वहॉ हानि निश्चित रूप से उपस्थित हैं। भारतीय धर्माशास्त्रो के अनुसार यह हमारे कर्मो के फल हैं। यह भाग्य कहलाते हैं। हमारे देश के महान साहित्यकार कालिदास, मेघदूत के उत्तर मेघ में कहते हैं-"दु:ख या सुख किसी पर सदा नही रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे कभी उपर यो ही होते रहते हैं" महाभारत के शान्ति पर्व में वेदव्यासजी कहते है "सुख के बाद दु:ख और दु:ख के बाद सुख आता है। कोई भी सदा दु:ख नहीं पाता और न ही निरन्तर सुख ही प्राप्त करता है।" इसलिए सुख दु:ख, लाभ हानि, अनुकूल प्रतिकूलता में यह समझ बनाए रखना ही समत्व योग कहा गया है ।

अटल है यह नियम - यह नियम सदा से है और सुनिश्चित है। यह नियम अटल भी है, किसी को इससे छूटकारा नहीं मिला है। हमारे शास्त्रों में भगवान राम को राज्य मिलते मिलते बारह वर्ष का वनवास मिलने की गाथा हैं। धर्मराज युधिष्ठिर सहित पाण्डव तेरह वर्षिय अज्ञातवास में कितने भटके और उन्होने क्या क्या नहीं किया, क्या क्या नहीं सहा, यह सब जानते हैं। हमारे ही देश में स्वतंत्रता के बाद राजाओं का राज्य समाप्त होते हमने देखा हैं। भारतीय राजनीति की अत्यन्त प्रभावाशाली महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गॉधी का निर्वाचन में परास्त होना और फिर आपतकाल लगाने की गाथा हम सब जानते है । कोई कितना ही शक्तिशाली हो या प्रभावाशाली हो समय का चक्र चलते हुए अपने पहिए को सदा चलायमान रखता है । गालिब ने क्या खूब कहॉ है - "रात दिन गर्दिश में हैं सातो आसमां, होकर रहेगा कुछ न कुछ घबराए क्या" अर्थात रात दिन गतिशिल है जो होना है होगा ही, अत: क्यों घबराए।

तब क्या करे? - समय के चक्र को तो हम रोक नहीं सकते किन्तु उसे स्वीकार ही कर सकते है,इन्तजार कर सकते है कि यह पहिया घुमते हुए फिर हमारे पक्ष में आएगा । इसके लिए चाहिए साहस, मनोबल । यदि इन क्षणों में हम साहस और मनोबल को बनाए रखे तो वह धैर्य हमें सफलता के महान प्रशस्त मार्ग पर ले जाएगा । गीता में भगवान कृष्ण ने महावीर अर्जुन के डिप्रेशन मे आने पर समत्व योग का उपदेश दिया । महावीर अर्जुन युद्ध स्थल पर धनुष फेंक कर युद्ध न करने की घोषणा कर चुके थे । तब भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि दु:ख का हेतू युद्ध नही कामना है । मन का आग्रह छोडे बिना कल्याण नही है । गीता के अघ्याय 2 लोक 38 में भगवान कहते है - "तुम सुख या दु:ख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किए बिना युद्ध के लिए युद्ध करो, ऐसा करने पर तुम्हे कोई पाप नही लगेगा" वास्तव में हमारा जीवन भी एक युद्ध है । इसमें दु:ख आते ही इसलिए है कि हम स्वार्थ, कामना, अंहकार और विषमता के कारण चाहते है कि आपके चाहे अनुसार ही परिस्थितिया, घटनाए घटित हो । जब कि क्षण क्षण परिवर्तित होती प्रकृति में यह सम्भव ही नहीं है । ध्यान रहे आपका शरीर, इन्द्रिया, मन सभी क्षण क्षण परिवर्तनशिल है। ये भी आपकी आज्ञा में नहीं है इसलिए आपके मन से मन को ही ये तथ्य समझाना पडेगा। यह मन ही आपका मित्र व शत्रु भी है।

भगवान श्री कृष्ण गीता के अध्याय 2 लोक संख्या 48 में कहते है - "हे अर्जुन ! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो, ऐसी समता योग कहलाती है" सम्पूर्ण गीता अर्जुन के बहाने जीवन के युद्ध में समत्व योग द्वारा विजय प्राप्त करने की कला का वर्णन करते है। यह कला सुख दु:ख, जीत पराजय में अपने मन को समत्व भाव में टिकाए रखने के लिए मार्ग बताती है लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि हम प्राणी मात्र में समता की दृष्टि रख सके । सब में वासुदेव के दर्शन करे और कामना, स्वार्थ, अहंकार का त्याग कर सके । यदि जीवन के युद्ध में समता के स्वर हम दे सके तो दु:ख, असन्तोष, तनाव विवाद आ ही नहीं सकते । इस पर विचार कर देखिए ।

सत्यनारायण भटनागर
snb@amoghfoundation.org