Friday, August 21, 2009

Mirror Exercise


Sit or stand in front of mirror. Comfortably look into your eyes in the mirror.

How are you feeling? Are you happy? Are you admiring yourself? Are you smiling at you?

Or are you criticizing yourself? Are you thinking about your flaws? Are you sad looking at you?

The point is if you can smile at you, if you can admire yourself, if you are happy looking at you, all these are sign of self acceptation.

The self acceptation is a healthy sign and it’s the key of all the happiness & success in one’s life. The opposite of self acceptance is self denial or self rejection, which holds you back from becoming happy & successful you!

Now let’s see, how it works. We have a powerful tool, our mind, although work on programming like a computer but supersede any kind of advance computer available in the world in any way, every way.

Our mind which is working on programming and at the same time, it has capability of writing programs by its own.

So our mind has a dual role, he is a creator as well as executer of all the programs, which decide the quality of our life.

One of my friends was overweight, his problem was very normal; we all are having the same problem in some way. He thought about diet control and exercise, so that he can reduce his weight. He was well aware that reducing weight was critical issue for his health. But irrespective of knowing it, every morning he failed to wake up on time to do exercise, he cannot control his diet too because of his fondness for delicious foods.

We generally name it as lack of commitment, lack of will power. He also did complain about the same. Then I asked him if he ever thought about who knew he is overweight & it is not good for his health or who was thinking about exercise & diet control and who were failed to did the same. His answer was he himself in both the cases.

Once we aware & realize that our mind himself is a creator and executor of all the things done by us, we are able to harness this capability to use it in our favor, which is otherwise in general working against us due to our preprogramming.

Amit Bhatnagar
Chief Mentor of Amogh Foundation & Renowned Coach of Emotional Intelligence
email: amitbhatnagar@amoghfoundation.org
Website: www.amoghfoundation.org

Monday, August 10, 2009

जीने की कला का नाम हैं समता योग

हम जिस दुनिया में रहते हैं उसे दु:खालय कहा जाता हैं। इस दुनिया में विवाद हैं, तनाव हैं, बीमारिया हैं, दुघर्टनाएं हैं, मृत्यु हैं। दु:ख प्राप्त होने के लिए दो हजार कारण गिनाए जा सकते हैं। इन दु:खो से कोई बचा नहीं हैं। जो सत्ता में हैं - उन्हे हमेशा खतरे बने रहते हैं। वे अपने सत्ता सुख को बनाए रखने के लिए सदा सावधान रहते हैं। उन्हे डर बना रहता हैं कि पता नही कब यह सत्ता सुख जाता रहे। जो समृद्ध हैं, उन्हे डर रहता हैं कि वे कहीं गरीबी रेखा के नीचे न आ जाए। मृत्यु व बीमारी का डर तो सदा ही हमारे सिर पर मॅंडराते रहते हैं। हम चाहते हैं कि हम जिन सुख समृद्धि के साधनो के स्वामी हैं, वह स्थिति सदा बनी रहे लेकिन ऐसा कभी होता नही हैं।

हम जब सुख समृद्धि के मार्ग पर आगे बढते हैं तो आनन्द सागर में डूब जाते हैं पर जब दु:खों के पहाड टूटते हैं तो लगता हैं कि अब कुछ भी शेष नही रहना हैं। यह स्थिति तनाव पैदा करती हैं। इससे मनोबल टूटता हैं, हम डिप्रेशन में आ जाते हैं। हमारे लिए कोई ऐसा सहारा नही दिखता जिसके सहारे से हम स्थिति से उबर सके। ऐसी स्थिति में व्यक्ति निराषा और तनाव की तरफ बढता हैं जिसका अन्त आत्म हत्या तक के रूप में सामने आता हैं ।

आज क्या आधुनिक छात्र, प्रशासक, समृद्ध धनी, कृषक, मजदूर, गृहणी सब भयभीत हैं और प्रतिदिन आत्म हत्या के प्रकरणो में भारी वृद्धि हो रही हैं। इन आत्म हत्याओं से सब परेशान हैं और इसके कारणो और समाधान के लिए व्यापक चिन्तन मनन हो रहा है। इन दु:खों के अन्तरतम की गहराई पर जाने पर हमें यह पता चलता हैं कि इसके लिए जिम्मेदार हमारा मन हैं। हमारा मन इतना चंचल हैं कि वह एक क्षण भी शान्त नही रहता। वह भटकता रहता हैं। उसका यह स्वभाव है कि वह जिस विषय पर अटक जाता हैं उसी पर बार बार केन्द्रित होता हैं। दु:खों के कारणों के आसपास जब यह मन अटक जाता है तो भविष्य भयावह दिखाई देने लगता हैं। इससे छुटकारे का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता। इस अंधकारपूर्ण वातावरण में हम कितना ही प्रयत्न करे ,मन को प्रकाश की कोई किरण दिखाई नहीं देती। ऐसी स्थिति में मृत्यु ही समस्त समस्याओं का समाधान करता है और ऐसी स्थिति में आत्म हत्या हीं एकमात्र मार्ग व्यक्ति के सामने दिखाई देता है ।

प्रकाश की किरण कहॉं हैं - इस स्थिति से बाहर आने के लिए ध्यान और प्राणायाम किए जाने का मार्ग प्रस्तुत किया गया है। डिप्रेशन से छुटकारा पाने के लिए कुछ औषधिया भी उपलब्ध हैं। मनौवैज्ञानिक सलाह, परार्मष भी दिए जाते है पर दु:खों के पहाड के नीचे दबे आदमी को इन सहारो पर भी विवास नही रहता। अपनों को भी वह अपनी मनोव्यथा व्यक्त नहीं कर पाता। वह गुमसुम हो जाता हैं, उसकी निद्रा उचट जाती है, भूख मर जाती हैं और चिन्ता उसके शरीर को खाती चली जाती है। वह असहाय सा हो जाता हैं।

इतने विशाल देश में कहॉ उपलब्ध हैं इतने मनौवैज्ञानिक, की वे सहज भाव से निराश, हताश व्यक्ति को उपलब्ध हो जाए । कहॉं है अपनों में इतनी समझ कि वे व्यक्ति के बिना बोले उसकी आन्तरिक व्यथा को समझ सहानुभूति का हाथ बढा पाए और हताशा के इन क्षणों में सहयोगी हो सके। इसके ठीक विपरीत किसके पास समय हैं कि वह इस गला काट प्रतियोगिता के युग में आपके दु:ख दर्द को सुने समझे। इसलिए प्रकाश की किरणों की खोज इस अंधकार पूर्ण वातावरण में नाकाफी है।

कहॉ से आते है दु:ख - सारे दु:ख आते हैं हमारे अन्दर से। कोई बाहर से आकर हमें दु:खी नहीं कर सकता। हम दु:खी होते है इसलिए कि हमारे अनुकूल परिस्थितियॉ हमेशा बनी नहीं रहती। परिवर्तन प्रति का नियम है। हम जिस संसार को स्थाई मान रहे हैं, उसमें हर क्षण बदलाव हो रहा है। हमारा शरीर जिसे हम ठोस मान कर चल रहे है, वह भी प्रतिक्षण बदल रहा है। इसी का परिणाम हैं, बालक से युवावस्था और वृद्धावस्था का सफर। हम प्रकृति और संसार के इस परिवर्तन को रोक नहीं सकते। इसलिए जो कुछ घटता है उसे हम सदा अनुकूल नहीं पाते, पर हम चाहते हैं कि वह हमेशा हमारे मन माफिक होता रहे। ऐसा न कभी हुआ है, न आगे होगा। हम चाहे आत्म हत्या करे या पागल हो जाए, यह हमारी मर्जी पर परिवर्तन का नियम अटल है, हमें उसे स्वीकार करना होगा। जैसे ही हम परिवर्तित स्थिति को स्वीकार करते हैं, हमें समस्यां के निराकरण के लिए समय मिलता हैं। हम चिन्ता से छूटकारा पाकर चिन्तन के मार्ग पर चल पडते हैं।

समय सदा एक सा नही होता - हमे यह स्मरण रखना चाहिए कि परिवर्तन का जो चक्र चला है, वह स्थाई नही है, वह सदा चलता रहेगा। इसलिए जो परिस्थिति उत्पन्न हो गई है, वह भी सदा नहीं रहेगी। वह बदलेगी और उसे बदला जा सकता है। सुख और दु:खों के बीच रिश्तेदारी है। जहॉ जहॉ भी सुख समृद्धि है। वहॉं दु:खों के बादल छिपे हुए हैं। जहॉ जहॉ शुभ के कदम हैं, वहॉ आसपास ही अशुभ भी हैं। जहॉं जहॉ लाभ दिखाई देता हैं, वहॉ हानि निश्चित रूप से उपस्थित हैं। भारतीय धर्माशास्त्रो के अनुसार यह हमारे कर्मो के फल हैं। यह भाग्य कहलाते हैं। हमारे देश के महान साहित्यकार कालिदास, मेघदूत के उत्तर मेघ में कहते हैं-"दु:ख या सुख किसी पर सदा नही रहते। ये तो पहिए के घेरे के समान कभी नीचे कभी उपर यो ही होते रहते हैं" महाभारत के शान्ति पर्व में वेदव्यासजी कहते है "सुख के बाद दु:ख और दु:ख के बाद सुख आता है। कोई भी सदा दु:ख नहीं पाता और न ही निरन्तर सुख ही प्राप्त करता है।" इसलिए सुख दु:ख, लाभ हानि, अनुकूल प्रतिकूलता में यह समझ बनाए रखना ही समत्व योग कहा गया है ।

अटल है यह नियम - यह नियम सदा से है और सुनिश्चित है। यह नियम अटल भी है, किसी को इससे छूटकारा नहीं मिला है। हमारे शास्त्रों में भगवान राम को राज्य मिलते मिलते बारह वर्ष का वनवास मिलने की गाथा हैं। धर्मराज युधिष्ठिर सहित पाण्डव तेरह वर्षिय अज्ञातवास में कितने भटके और उन्होने क्या क्या नहीं किया, क्या क्या नहीं सहा, यह सब जानते हैं। हमारे ही देश में स्वतंत्रता के बाद राजाओं का राज्य समाप्त होते हमने देखा हैं। भारतीय राजनीति की अत्यन्त प्रभावाशाली महिला प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गॉधी का निर्वाचन में परास्त होना और फिर आपतकाल लगाने की गाथा हम सब जानते है । कोई कितना ही शक्तिशाली हो या प्रभावाशाली हो समय का चक्र चलते हुए अपने पहिए को सदा चलायमान रखता है । गालिब ने क्या खूब कहॉ है - "रात दिन गर्दिश में हैं सातो आसमां, होकर रहेगा कुछ न कुछ घबराए क्या" अर्थात रात दिन गतिशिल है जो होना है होगा ही, अत: क्यों घबराए।

तब क्या करे? - समय के चक्र को तो हम रोक नहीं सकते किन्तु उसे स्वीकार ही कर सकते है,इन्तजार कर सकते है कि यह पहिया घुमते हुए फिर हमारे पक्ष में आएगा । इसके लिए चाहिए साहस, मनोबल । यदि इन क्षणों में हम साहस और मनोबल को बनाए रखे तो वह धैर्य हमें सफलता के महान प्रशस्त मार्ग पर ले जाएगा । गीता में भगवान कृष्ण ने महावीर अर्जुन के डिप्रेशन मे आने पर समत्व योग का उपदेश दिया । महावीर अर्जुन युद्ध स्थल पर धनुष फेंक कर युद्ध न करने की घोषणा कर चुके थे । तब भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि दु:ख का हेतू युद्ध नही कामना है । मन का आग्रह छोडे बिना कल्याण नही है । गीता के अघ्याय 2 लोक 38 में भगवान कहते है - "तुम सुख या दु:ख, हानि या लाभ, विजय या पराजय का विचार किए बिना युद्ध के लिए युद्ध करो, ऐसा करने पर तुम्हे कोई पाप नही लगेगा" वास्तव में हमारा जीवन भी एक युद्ध है । इसमें दु:ख आते ही इसलिए है कि हम स्वार्थ, कामना, अंहकार और विषमता के कारण चाहते है कि आपके चाहे अनुसार ही परिस्थितिया, घटनाए घटित हो । जब कि क्षण क्षण परिवर्तित होती प्रकृति में यह सम्भव ही नहीं है । ध्यान रहे आपका शरीर, इन्द्रिया, मन सभी क्षण क्षण परिवर्तनशिल है। ये भी आपकी आज्ञा में नहीं है इसलिए आपके मन से मन को ही ये तथ्य समझाना पडेगा। यह मन ही आपका मित्र व शत्रु भी है।

भगवान श्री कृष्ण गीता के अध्याय 2 लोक संख्या 48 में कहते है - "हे अर्जुन ! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो, ऐसी समता योग कहलाती है" सम्पूर्ण गीता अर्जुन के बहाने जीवन के युद्ध में समत्व योग द्वारा विजय प्राप्त करने की कला का वर्णन करते है। यह कला सुख दु:ख, जीत पराजय में अपने मन को समत्व भाव में टिकाए रखने के लिए मार्ग बताती है लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि हम प्राणी मात्र में समता की दृष्टि रख सके । सब में वासुदेव के दर्शन करे और कामना, स्वार्थ, अहंकार का त्याग कर सके । यदि जीवन के युद्ध में समता के स्वर हम दे सके तो दु:ख, असन्तोष, तनाव विवाद आ ही नहीं सकते । इस पर विचार कर देखिए ।

सत्यनारायण भटनागर
snb@amoghfoundation.org

Thursday, August 6, 2009

Acceptance is the key of awareness.

The biggest hurdle in our self awareness is the denial of things. We do not accept the things, as they appear to us. We insist that unless we do not agree with, we can not accept.

But truth is that the 'Acceptance' and 'Agreement' are entirely different aspects. It is not necessary to agree with the things, to accept them.

In fact mere acceptance without agreement empowers us to do the required possible changes, which otherwise not possible. If we are not ready to accept, we drain our energy to reject that idea, that thing.

Acceptance does not mean surrender, in fact it is opposite. It means to see the things as it is, to see the things without prejudice, without filtering them by our past experiences.

Practice to accept as it is; curb our habit of judging & labeling everything based on our experiences. It also makes us free from our self imposed limitations and we can able to see the things as they are and that is the awareness.

Amit Bhatnagar
Chief Mentor of Amogh Foundation & Renowned Coach of Emotional Intelligence
email: amitbhatnagar@amoghfoundation.org
Website: www.amoghfoundation.org

Thursday, July 23, 2009

How to Stop Smoking and get a Healthy, Happy and confident life in return!


Want to quit smoking? Many times tried and failed? Some where find it difficult and think that you are lacking will power?


IF YES, There is a good news, now you can Quit Smoking very easily!

You will not only able to quit smoking but get a better self image, a better confidence of having better self control too!


This Ebook is written on the principals based on how human mind works and Emotional Intelligence.


Tuesday, July 14, 2009

भावनात्मक बुद्धिमानी क्यों जरुरी हैं?

संजय ऑफिस से घर लौटकर आया और बेटे से पानी लाने को कहा। बेटा टीवी देखने में मशगूल था, उसने अनसुना कर दिया। इस पर संजय अपना आपा खो बैठा और पास पड़े डंडे से उसने बेटे की बुरी तरह पिटाई कर डाली। कारण बड़ा सामान्य था। संजय का दिन काफी परेशानी भरा बीता था। वह अपना प्रोजेक्ट समय पर नहीं कर पाया और उसे अपने बॉस से काफी कुछ सुनना पड़ा था। इसी का गुस्सा उसने बेटे पर निकाला।

आए दिन हम अपने घरों में, अड़ोस-पड़ोस में, रास्ते में, ऑफिस में देखते हैं कि लोग छोटी-छोटी बातों पर अपना आपा खो देते हैं। मम्मियाँ बच्चों पर झुंझलाती हैं, मियाँ-बीवी छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते रहते हैं, यहाँ तक कि तलाक ले लेते हैं। किशोरवय के बच्चे हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध कर रहे हैं। छोटी-छोटी बातों पर वाहन चालक सड़क पर हाथापाई कर रहे हैं। यह सूची अनंत है, पर इस सबके पीछे कारण एक है- भावनात्मक समझदारी, जिसे इंग्लिश में इमोशनल इंटेलीजेंस कहते हैं, का अभाव या कमी।

भावनाएँ हमारे व्यक्तित्व का अभिन्न अंग हैं। हमारे दिमाग के दो मुख्य हिस्से हैं- एक जो तार्किक है, जो हर चीज को तर्क के हिसाब से ही देखता है और दूसरा भावनात्मक, जिसका तर्क से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं है। कहते हैं हमारा भावनात्मक दिमाग, तार्किक दिमाग से यही कोई दस करोड़ साल पुराना है।

दिमाग का मुख्य भाग "ब्रेन स्टेम", जो रीढ़ की हड्डी के ऊपरी भाग को घेरे रहता है, सामान्यतः सभी प्राणियों में पाया जाता है। साँस लेना और पाचन तंत्र जैसे स्वचलित लगने वाले काम दिमाग के इसी भाग के कारण होते हैं। दिमाग का यह हिस्सा न तो सोच सकता है और न ही सीख सकता है, पर यह जीवन चलाने वाले सारे स्वचलित कामों को अंजाम देता है।

इसी मुख्य दिमाग के एक भाग, "ओलफैक्ट्री लोब" जो कि सुगंध से जुड़ा है, से हमारे भावनात्मक दिमाग का उद्भव हुआ। शुरुआती दिनों में यह "ओलफैक्ट्री लोब" ही गंध को याद रखती थी और बताती थी कि सामने जिससे वास्ता पड़ा है वह दुश्मन है, भोजन है या प्रेयसी है और प्रतिक्रिया तय करती थी कि खाना है, आगे बढ़ना है या जान बचाने के लिए भागना है। "ओलफैक्ट्री लोब" के विकास से बना हमारा भावनात्मक दिमाग "लिम्बिक सिस्टम" कहलाता है। विकास के करोड़ों वर्षों के दौरान हमारा तार्किक दिमाग, जो "नियो कोर्टेक्स" कहलाता है, अस्तित्व में आया।

दिमाग के दो और मुख्य अवयव होते हैं- "अमिगडला" और "थेलामस"। "अमिगडला" बड़े ही कमाल की चीज है। हमारी भावनात्मक समझदारी का बहुत कुछ दारोमदार इसी पर होता है, वहीं "थेलामस" छोटे-मोटे कम्युनिकेशन सेंटर की तरह काम करता है। जो कुछ हम इंद्रियों द्वारा महसूस करते हैं, वह हमारे दिमाग में "थेलामस" के जरिए ही पहुँचता है।

"अमिगडला" बादाम के आकार का होता है और यह भावनात्मक दिमाग के ड्राइवर की तरह होता है। यह सूचनाओं के भावनात्मक पहलुओं को याद रखता है। जो भावनाएँ हम महसूस करते हैं और उन पर जो प्रतिक्रिया देते हैं, वह सब कुछ "अमिगडला" के कारण ही होता है।

"अमिगडला" का सूचनाओं को परखने का तरीका जुदा होता है, वह हर सूचना को पहले से संकलित भावनात्मक सूचनाओं से तुलना कर, किसी परेशानी की संभावना को परखता है। वह देखता है कि आई हुई सूचना कुछ ऐसी तो नहीं है जिससे वह घृणा करता है या जो नुकसान पहुँचा सकती है या जिससे भय है। अगर कहीं भी उसे ऐसी किसी भी आशंका का अहसास हुआ तो वह तुरंत संकट का अलार्म बजा देता है और पूरा शरीर उसी हिसाब से सकंट के खिलाफ उत्तेजित हो, संकट से सामना करने के लिए तैयार हो जाता है।

अभी तक विशेषज्ञों का यह मानना था कि जो कुछ हम इंद्रियों के द्वारा महसूस करते हैं वह पहले "थेलामस" में जाता है और वहाँ से हमारे तार्किक दिमाग "नियो कोर्टेक्स" में, जहाँ सूचनाएँ इकट्ठा होकर पूर्ण आकार लेती हैं, उन्हें समझा जाता है और तब यह संवर्द्धित सूचना हमारे भावनात्मक दिमाग "लिम्बिक सिस्टम" में जाती है जहाँ उसका भावनात्मक विश्लेषण होता है और उसके अनुसार शरीर को आवश्यक निर्देश जारी होते हैं। एक विशेषज्ञ "ली डॉक्स" ने अपने अनुसंधान में पाया कि "थेलामस" से "लिम्बिक सिस्टम" के मध्य जो संचार तंत्र हमारे तार्किक दिमाग "नियो कोर्टेक्स" से होकर जा रहा है, उसके अलावा एक और अपेक्षाकृत कम जटिल और छोटा संचार तंत्र सीधा "थेलामस" से "अमिगडला" तक आ रहा है। यह छोटा संचार तंत्र पूर्ण सूचना तो "अमिगडला" तक नहीं पहुँचा पाता वरन आंशिक या अधूरी सूचना ही पहुँचा पाता है। यह अपेक्षाकृत छोटा संचार तंत्र तब काफी उपयोगी था, जब आदमी जंगल में रहता था और उसे क्षणमात्र में किसी भी खतरे से निपटना होता था।

आज के हालात में जब मनुष्य एक सामाजिक प्राणी बन चुका है और उसे जंगल की तरह के खतरों का सामना नहीं करना पड़ता है, इस तरह की अधूरी सूचना पर काम करने वाला संचार तंत्र काफी खतरनाक हो सकता है।

जैसा कि हमने देखा कि "अमिगडला" हर सूचना का विश्लेषण संभावित खतरे को आँकने के हिसाब से करता है, ऐसी कोई भी अधूरी सूचना जो खतरा लगे, उसे आक्रामक बना सकती है और परिणाम भयंकर एवं कष्टप्रद हो सकते हैं। हम स्वयं इस बात के गवाह हैं जब हम या हमारे आसपास के लोग क्षणिक आवेश में ऐसे कार्य कर बैठते हैं, जिन पर बाद में पछताना पड़ता है।

जिंदगी में सुकून, शांति से रहने और सफल होने के लिए जरूरी है कि हम उपयुक्त निर्णय ले सकें और इसके लिए जरूरी है कि हम इमोशनल इंटेलीजेंट या भावनात्मक बुद्धिमान बनें। इस तरह की बुद्धिमानी हमें सक्षम बनाती है कि हम आवेश में आकर कार्य करने की बजाय शांतचित होकर काम कर पाएँ और जिंदगी में सफलता व खुशी सुनिश्चित कर पाएँ।



(अमित भटनागर अमोघ फाउंडेशन के सीइओ व इमोशनल इंटेलिजेंस के कोच हैं
ईमेल : amitbhatnagar@amoghfoundation.org
वेबसाइट : www. amoghfoundation.org)

Monday, June 22, 2009

सवेदनशीलता

जो संवेदनशील हैं, प्रायः उन्हें कमजोर मान लिया जाता हैं। जो अपने को सबल समझते हैं, वे प्रायः, असंवेदनशील होते हैं। कुछ लोग स्वयं के प्रति संवेदनशील होते हैं पर औरो के प्रति नहीं। और कुछ लोग दुसरो के प्रति संवेदनशील होते हैं पर खुद के प्रति नहीं। जो लोग केवल अपने प्रति संवेदनशील होते हैं, वे प्रायः औरो को दोष देते हैं। जो केवल दुसरो के प्रति संवेदनशील होते हैं, वह स्वयं को असहाय और दीन समझते हैं. उनकी सोच रहती हैं – बेचारा में।

कुछ लोग इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं की संवेदनशील होना ही नहीं चाहिए क्योंकि संवेदनशीलता से पीडा होती हैं ( और पीडा होने का अर्थ, वे कमजोर होना समझते हैं)। इसलिए वे अपने आप को औरो से दूर रखने लगते हैं परन्तु यदि तुम सवेदनशील नहीं हो तो तुम जीवन के अनेक सूक्ष्म अनुभवों को खो दोंगे, जैसे अंतर्ज्ञान, सोंदर्य और प्रेम का उल्लास। यह पथ और यह घ्यान तुमको सबल भी बनाता हैं और संवेदनशील भी। असंवेदनशील व्यक्ति प्रायः अपने ही भीतर की कमजोरियों को नहीं पहचान पाते। और जो संवेदनशील होते हैं, वे अपनी ताकत को नहीं पहचान पाते। उनकी संवेदनशीलता ही उनकी ताकत हैं। संवेदनशीलता ही आत्मबल हैं बशर्ते तुम इस बात को समझ पाओ, बशर्ते तुम अपनी संवेदनशीलता से सीख पाओ।
श्री श्री रवि शन्कर

Saturday, June 20, 2009

पापा हम आपको प्यार करते हैं. (फादर्स डे पर विशेष लेख)

इस बार फादर्स डे याने पितृ दिवस हमारे यहाँ २१ जून के दिन आया हैं. विश्व भर में यह अलग अलग दिन बनाया जाता हैं. अमेरिका व भारत सहित अधिकांश देशो में यह जून के तीसरे रविवार को बनाया जाता हैं.

ताईवान में जहा यह आठ अगस्त, जो की आठवे महीने की आठवी तारीख हैं के दिन बनाया जाता हैं. आठ का उच्चारण ‘मेंडरिन चाइनीज़’ जो की ताईवान की भाषा हैं, में 'बा' से मिलता जुलता हैं, जिसका की मतलब पापा या पिता भी होता हैं. इसीलिए ताइवानवासी ८ अगस्त को 'बाबा डे' भी कहते हैं.

थाईलैंड में ५ दिसम्बर को, नार्वे व स्वीडन में यह नवम्बर के दुसरे रविवार को, ब्राजील में अगस्त के दुसरे रविवार को और आस्ट्रिया व बेल्जियम में जून के दुसरे रविवार को फादर्स डे के रूप में बनाया जाता हैं.

ऐतिहासिक तौर पर फादर्स डे शुरू करने का श्रेय वाशिंगटन की सोनोरा डोड को जाता हैं. सोनोरा को यह ख्याल १९०९ में मदर्स डे की एक सभा में शामिल होने के दौरान आया था. सोनोरा के पिता विलियम स्मार्ट ने उसकी मॉं की म्रत्यु के पश्चात्, अकेले ही अपने छः बच्चो की परवरिश की थी. सोनोरा की मॉं की म्रत्यु उसे जन्म देने के दौरान हो गयी थी. सोनोरा ने यह महसूस किया की उसके पिता ने निस्वार्थ भावः से, खुद के सुखो का त्याग करते हुए उसका व उसके भाई बहनों का जो पालन पोषण किया वह अपने आप में बेमिसाल था.

सोनोरा अपने पिता के सम्मान में एक विशेष दिन चाहती थी और चूँकि उसके पिता विलियम स्मार्ट का जन्म जून महीने में ही हुआ था, अतः उसने १९ जून १९१० में पहला फादर्स डे स्पोकेन, वाशिंगटन में आयोजित किया.

अनोपचारिक रूप से फादर्स डे बनता रहा, बीच बीच में जहा इसे समर्थन भी मिलता रहा वही इसका मखोल भी बनाया गया. जंहा मदर्स डे विश्व भर में काफी प्रेम और उत्साह के साथ बनाया जाता रहा हैं, वही फादर्स डे को लोगो ने उतनी आसानी से स्वीकार नहीं किया. अखबारों और पत्रिकाओ में इस पर कार्टून छपे और यह मजाक का विषय भी बना रहा.

१९२४ में अमेरिका के तब के राष्टपति केल्विन कुलिज़ ने इसका समर्थन किया, १९६८ में तत्कालीन राष्टपति लिंडन जॉन्सन ने इस हेतु एक अध्यादेश पर हस्ताक्षर किये और १९७२ में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के द्वारा सम्बंधित कानून पर ओपचारिक रूप से हस्ताक्षर करने के बाद यह स्थाई रूप से जून के तीसरे रविवार के दिन बनाया जाने लगा.

फादर्स डे के बारे में एक और रोचक तथ्य यह हैं की इस दिन बिकने वाले ग्रीटिंग कार्ड और उपहारों का कुल अनुमानित मूल्य, मदर्स डे को होने वाली बिक्री का मुश्किल से ६० प्रतिशत ही होता हैं.

शायद ऐसा इसलिए होता हैं की जहाँ मॉं के साथ गहरे भावनात्मक सम्बंथ होते हैं वही पिता के साथ तुलनात्मक रूप से वैचारिक सम्बन्ध होते हैं. हमारी हिंदी फिल्मे भी जहा नायक को 'मेरे पास मॉं हैं' जैसे भावुक संवाद देती हैं वही पिता को सिद्धांतवादी व्यक्ति जिसका भावनाओ से सम्बन्ध नहीं है के रूप में प्रस्तुत करती हैं. अभी कुछ साल पहले तक सामाजिक तौर पर पिता का सबके सामने अपने बच्चो के प्रति प्यार का इज़हार अच्छा नहीं माना जाता था, पर यह बात मॉं पर लागु नहीं होती थी.

वैसे भी हमारा सामाजिक ताना बना कुछ इस तरह का हैं जहाँ मॉं तो प्यार का पर्यायवाची हैं, वही पिता अनुशासन और व्यवस्था के प्रतिक हैं. यह माना जाता रहा हैं की अनुशासन और व्यवस्था बनाये रखने के लिए यह जरुरी हैं की पिता भावुक न बने और भावनाओ को दरकिनार कर. तार्किक रूप से कार्य करे. इसके पीछे हमारी इस सामाजिक धारणा जहाँ भावुक होने का अर्थ कमजोर होना माना जाता हैं, का भी बड़ा हाथ हैं.

हम सब भी जब अपनी अपनी जिंदगियों में झाकते हैं तो कुछ अपवादों को छोड़ कर प्रायः यही पाते हैं की पिता होने का अर्थ एक दृढ, मजबूत और शांत व्यक्ति होना ही हैं, जो बड़ी से बड़ी मुश्किलों में भी अविचलित रहता हैं और परिवार के सभी सदस्यों के लिए संबल की तरह होता हैं.

पर क्या यह सचमुच सही हैं, ऊपर से मजबूत, दृढ और निडर दिखने वाले यह हमारे पिता, यह पुरुष क्या सचमुच अंदर से भी ऐसे ही हैं?

भावनात्मक बुद्धिमानी विषय पर ५,००,००० वयस्कों पर हुए शोध में यह परिणाम सामने आया की पुरुष भी उतने ही भावुक होते हैं जितने की महिलाए. मनोवेघ्यानिक जोश कोलमेन का कहना हैं की फर्क सिर्फ इतना ही हैं की जहा महिलाओ में भावनाए परोक्ष रूप से सक्रीय होती हैं, पुरुषों में यह प्रष्टभूमि में ही रहती हैं.

ऐसा क्यों होता हैं? इंटरनेशनल सेंटर फार हैल्थ कंसर्न के अध्यक्ष डेविड पावेल का कहना हैं की ऐसा मस्तिष्क की संरचना के कारण होता हैं. मस्तिष्क का बायाँ भाग जो की तर्क शक्ति से जुडा हैं और दायां भाग जो भावनाओ को संचालित करता हैं, के बीच जो सेतु हैं, वह महिलाओ में किसी हाईवे के समकक्ष और त्वरित होता हैं वही पुरुषों में यह उतना विकसित नहीं होता हैं और इसीलिए भावनाओ के लिए प्रतिक्रिया भी अपेक्षाकृत धीमी ही होती हैं.

यही कारण हैं की पुरुष चेहरे के भाव, वाणी के उतर चदाव व अनबोले संदेशो को पड़ पाने में उतने सक्षम नहीं होते हैं. परन्तु मस्तिष्क की यह संरचना पैदाइशी ऐसी नहीं होती हैं, वरन बाद में इस तरह विकसित हो जाती हैं. पुनः इसका श्रेय हमारे सामाजिक और पारावारिक ताने बाने को जाता हैं. जहाँ लड़के एक वर्ष की उम्र तक आते आते, लड़कियों की तुलना में निगाह मिलाना कम पसंद करते हैं और चलायमान वस्तुए जैसे की कार, उनका ध्यान कही अधिक आकर्षित करती हैं बजाए मनुष्यों के चेहरे के.

माता पिता भी लड़कियों के मुकाबले लड़को से भावनाओ के बारे में कम ही बात करते हैं. लड़के भी अगर गुस्से को छोड़ दे तो भावनात्मक शब्दों और भावनाओ का उपयोग कम ही करते नजर आते हैं. लड़को को यहाँ तक सिखाया जाता हैं की रोना और भावुक होने का अर्थ लड़की होना हैं. 'क्या लड़कियों की तरह रोता हैं' यह वाक्य हम सभी की जिन्दगी का सामान्य सा हिस्सा हैं.

जहाँ लड़किया और महिलाए अपनी भावनाओ को व्यक्त कर उनसे मुक्त हो जाती हैं, पुरुषों को अपनी भावनाए दबाना पड़ती हैं. यह बात उपरी तौर पर तो पुरुषों को मजबूत होने का आभास कराती हैं परन्तु अन्दुरिनी तौर पर बेचारा व कमजोर भी बनाती हैं. पुरुष अपनी भावनाओ के दबाने के चलते जहाँ प्यार और अपनत्व का इजहार नहीं कर पाते हैं वही दबी हुई भावनाए क्रोध के रूप में, जो की पुरुषों के लिए एकमात्र स्वीकार्य भावना हैं, व्यक्त होती हैं.

यह क्रोध दुसरो में भय उत्पन्न करता हैं. हम में से अधिकांश लोगो के दिमाग में पिता की छवि एक क्रोधी, निरंकुश और भावना विहीन व्यक्ति के रूप में ही हैं.

पर यह सच नहीं हैं, इस भावना विहीन छवि के पीछे एक भावुक व्यक्ति भी हैं, जिसे उतने ही प्यार, अपनत्व और सहारे की जरुरत हैं जितने की हमारी मॉं को हैं. हकीकत तो यह हैं की हमारे पिता वास्तविकता में काफी बिचारे हैं क्योंकि वह चाहते हुए भी अपनी जरूरतों को व्यक्त नहीं कर सकते हैं.

आइये आज फादर्स डे के दिन हम इस बात को समझते हुए अपने पिता के प्रति प्यार का इजहार करे, उन्हें हम खुले दिल से महसूस कराये की हम उन्हें कितना प्यार करते हैं और उनका हमारी जिन्दगी में कितना महत्व हैं. क्योंकि इस पिता नामक इन्सान के कठोर आवरण के पीछे भी एक नाजुक दिल धड़कता हैं.

(अमित भटनागर अमोघ फाउंडेशन के सीइओ व इमोशनल इंटेलिजेंस के कोच हैं
ईमेल : amitbhatnagar@amoghfoundation.org
वेबसाइट : www. amoghfoundation.org)

Wednesday, June 10, 2009

क्या आप भावनाओ से संचालित होते हैं?

नरेश एक अच्छी कम्पनी में नौकरी करता था, उसका बॉस और वह पिछले पांच सालो से साथ काम कर रहे थे और उसका बॉस उसके काम से संतुष्ट था । अचानक नरेश के बॉस को कंपनी ने प्रमोशन दे कर, दूसरी बड़ी ब्रांच में भेज दिया और नरेश की ब्रांच में उसका दूसरा बॉस आ गया ।

यहीं से नरेश के लिए मुश्किलें शुरू हों गई, नए बॉस की कार्य करने की पद्धति पुराने बॉस से अलग थी । नया बॉस उम्र में भी अपेक्षाकृत युवा था । नरेश परेशान रहने लगा और इसका असर उसके काम पर भी पड़ने लगा । नरेश का अक्सर मन होता की वह नौकरी छोड़ कर कहीं भाग जाएँ, पर वह यह सोच कर रह जाता की बिना नौकरी के वह करेगा क्या?

एक तरफ नौकरी के बदले हुए हालत और दूसरी तरफ नौकरी करने की मजबूरी उसकी परेशानी को और बढा देते थे । इसी उधेडबुन और परेशानी में कई महीनें गुजर गए, एक दिन नरेश की कंपनी ने उसके कार्य से असंतुष्ट होकर उसे नौकरी से निकाल दिया । नरेश की परेशानी और बढ़ गयी, वह दुखी रहने लगा. जरूरतों के कारण उसे अपनी योग्यता से कमतर वाली नौकरी करनी पड़ी ।

हम अपने आस पास इस तरह के या इससे मिलते जुलते घटनाक्रम को अनुभव करते रहते हैं, हम अपनी स्वयं की जिन्दगी में भी तनाव, परेशानियां और दुखों को पहले से कहीं अधिक बढा हुआ पाते है ।

अगर गहराई में जा कर देखे तो पाएंगे की इन सभी के पीछे कही न कही हमारी भावनाएं है. जरा सोचियें इस लेख के शीर्षक “क्या आप भावनाओं से संचालित होंते है ?” का अर्थ आपके लिए क्या है?

हममें से कई लोग अत्यंत भावुक होते है, भावनाओं में बहकर अपने कार्य करते है और अक्सर बाद में पछताते हुए मिलते हैं । वही दूसरे प्रकार के लोग भी है, जो भावनाओ का होना और उन्हें अभिव्यक्त करना अच्छा नहीं मानते हैं, ऐसे लोग अक्सर गुस्से और आतंरिक असन्तोष के शिकार पाए जाते है।

सही मायने में देखा जाये तो हम पाएंगे की भावनाओं में बहना या उन्हें नकारना, एक ही सिक्के के दो पहलु हैं क्योंकि दोनों ही तरह से जो परिणाम मिलते है, वह हमारी दूरगामी खुशी और सफलता के लिए हनिकारक होते है ।

आइये देखें कि हमारी जिन्दगी में भावनाओ का अस्तित्व क्यों हैं ? शायद आप को पता होगा की हमारे मस्तिष्क में दो अलग अलग केंद्र होते हैं । एक केन्द्र भावनाओं को संचालित करता हैं और दूसरा हमारे विचारों को । हमारे विचार और भावनाएं अलग अलग महसूस होते हैं, विचार जो मस्तिष्क में उपजते हैं और भावनाएं जो हम शरीर में महसूस करते हैं । हमारी भावनाएं हमारे विचारों से यही कोई सौ करोड़ साल पुरानी हैं ।

हमारी भावनाएं हमें प्रकृति का अदभुद उपहार है, यह हमें आंतरिक सन्देश देती है कि हम जिस स्थिती में है या हम जो कर रहे हैं वो हमारे विश्वास, हमारी मान्यताओं और हमारी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के अनुरूप है या नहीं ।

हम अच्छी भावनाओं को महसूस करते है जब हम अपने अनुकूल कार्य कर रहे होते है और यदि हम अपने प्रतिकूल होते है तो हम बुरी भावनाएं महसूस करते है ।

हम इसे कुछ इस तरह समझ सकते हैं कि हम एक ऐसे क्षेत्र में रहते है जहां अक्सर आग लगती रहती है और वहां भावनाएं हमारे घर में लगा फायर अलार्म की तरह है, इसे यदि हम बंद कर देंगे तो घर जल कर खाक भी हो सकता है, वहीं दूसरी तरफ इसके अत्यधिक संवेदनशील होने पर हमें बार बार गलत अलार्म मिलेंगे, यह हर छोटी मोटी बातों पर बजता रहेगा और हम सुचारू रूप से कोई काम नहीं कर पाएंगे ।

जरुरत इस बात की है कि हम इस फायर अलार्म की कार्य प्रणाली को समझ कर इसका संयोजन इस प्रकार करे की यह हमें न सिर्फ विपत्तियों से बचाये बल्कि हमें सुचारू रूप से कार्य करने में मदद करें ।

बुरी भावनाओं से निपटने का सबसे आसान उपाय हैं उन्हें समझना, न की उन्हें नकारना या उनके साथ बह जाना । सबसे पहले हम अपने आप से यह पूछें की हम जो भावना महसूस कर रहे है, वह क्या है, कैसी महसूस हो रही हैं और वह हमें क्या बताना चाहती है ? उसके बाद हम उपलब्ध विकल्पों को देखे और उनमें से ऐसे विकल्पों को चुने जिससे हमारी दूरगामी खुशियां भी सुनिश्चित होती हों । हम यह भी देखें कि हम अच्छा महसूस करने के लिए क्या कर सकते है । बेहतर होगा कि हम उन उपायों पर अपना ध्यान केन्द्रित करे जो हमारे बस में हो । ऐसा करने पर हमें धीरे-धीरे न सिर्फ अपनी बुरी भावनाओ से निपटने का अभ्यास होगा, बल्कि हम सही दिशा में अपने प्रयासों का उपयोग कर पाएंगे और अधिक सफल भी बन पाएंगे ।

नरेश के उदाहरण को यदि हम देखें तो पाएंगे कि परेशानी, दुख और नौकरी न रहने पर होने वाली तकलीफ के भय ने नरेश को इस तरह जकड़ लिया कि उसकी कार्य करने की क्षमता और कम हो गई । नरेश की तरह हम सभी भी यही गलती करते है और बुरी भावनओं के अस्तित्व को ही स्वीकार करना नहीं चाहते है । यह सर्वविदित तथ्य है कि जिस भी बात का हम प्रतिरोध करते है, वही बात हम पर हावी हो जाती है । यदि कोई आपसे कहे कि आपको लाल मुंह के बंदर के बारे में नहीं सोचना है तो सबसे पहले आपके दिमाग में लाल मुंह के बंदर का ही ख्याल आएगा । हमारा मस्तिष्क इसी तरह काम करता है, उसे यदि आप निर्देश देंगे कि यह काम नहीं करना है तो उसे पहले उस काम के बारे में सोचना पडे़गा जो की नहीं करना है । बस यही कारण है कि जब हम बुरी भावनाओं को नकारते है तो वह हम पर और ज्यादा हावी हो जाती है ।

यदि नरेश ने बजाय भावनाओं से पीछा छुडा़ने के, भावनाओं के पीछे छुपे संदेश को समझा होता तो बजाय परेशान होने के वह अपनी कार्यपद्धति को बदलकर ना सिर्फ अपनी नौकरी बचा पाता बल्कि बदलाव का सकारात्मक उपयोग कर अपने को और अधिक प्रभावशाली भी बना पाता ।

तो आइये हम संकल्प करे की हम बजाय भावनाओं में बहने या उन्हे नकारने के, उन्हे समझने की कोशिश करे और अपनी भावनाओं एवं विचारों के बेहतर तालमेल से अपने लिए एक सुखी और सफल जिन्दगी की रचना भी करे ।

(अमित भटनागर अमोघ फाउंडेशन के सीइओ व इमोशनल इंटेलिजेंस के कोच हैं
ईमेल : amitbhatnagar@amoghfoundation.org
वेबसाइट : www.amoghfoundation.org)